गुजरात मॉडल का विस्तार,देश भर में गुजरात मॉडल अपनाने का नतीजा यह हुआ है कि बहस और असहमति के लिए जगह सिकुड़ती जा रही हैं । भारतीय राजनीति में पैसे और राज्य तंत्र की भूमिका हमेशा ही रही है , पर 2014 से पहले ये ऐसी निर्णायक भूमिका में नहीं थे । लिए

भूमिका हमेशा ही रही मैं इन दिनों गुजरात के 2002 के दंगों पर एक नई किताव पढ़ रहा हूं , जिसका शीर्षक है , अंडर कवर : माई जर्नी इनटू द डार्कनेस ऑफ हिंदुत्व।इसे आशीष खेतान ने लिखा है , जिन्होंने दंगों के वाद शानदार रिपोटिंग की थी , खासतौर से उन हमलावरों के बारे में जो सजा से वच गए । दो दशक पहले हुए उस खूनी नरसंहार को समझने के लिए अंडर कवर एक महत्वपूर्ण स्रोत है । हालांकि यह वर्तमान के बारे में भी बात करती है , क्योंकि तव जो उस राज्य में शासन कर रहे थे , वही आज केंद्र में हैं । मोदी के गुजरात में , खेतान लिखते हैं कि , यदि किसी नौकरशाह या पुलिस अधिकारी को आगे बढ़ना होता था , तो उसे पूरी तरह से व्यवस्था के छल - कपट का हिस्सा बनना पड़ता था । प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री के रूप में अमित शाह के आने के बाद केंद्र सरका जीर के लिए भी यह वात सच है । 2014 से पहले भारत सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले आधिकारिक आर्थिक आंकड़ों की उनकी विश्वसनीयता के कारण दुनिया भर में तारीफ होती थी । अव , अध्येता उन पर विश्वास नहीं करते । प्रत्येक क्षेत्र में , चाहे वह अर्थव्यवस्था हो या स्वास्थ्य या शिक्षा या चुनावी फंडिंग , सत्य या पारदर्शिता के बजाय चालाकी और उपेक्षा सरकार के व्यवहार की विशेषता है । देश भर में गुजरात मॉडल अपनाने का नतीजा यह हुआ है कि वहस और असहमति के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है । खेतान लिखते हैं : गुजरात में बारह साल से अधिक समय तक जिन टूल्स का इस्तेमाल किया गया , उनका इस्तेमाल अब राष्ट्रीय स्तर पर असहमति को दवाने और आतंकित करने के लिए किया जा रहा है , मोदी के आलोचकों को राष्ट्र विरोधी और राष्ट्र के लिए खतरा बताकर अक्सर जेल में डाल दिया जाता है । शांतिपूर्ण विरोध को दबाने के लिए मोदी - शाह को सत्ता ने मनमाने ढंग से राज्य शक्ति का बेतहाशा इस्तेमाल किया है । पिछले साल दिल्ली पुलिस ने फरवरी के दंगों की आड़ लेकर छात्र नेताओं और महिला कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई की , जिनका इन दंगों से कोई लेना देना नहीं था , वहीं दूसरी ओर उसने उन शीर्ष भाजपा नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इन्कार कर दिया , जो खुलेआम हिंसा के लिए उकसा रहे थे । दंगों के मामले में पुलिस के पक्षपाती रवैये के बारे में जूलियो रिवेरो ने लिखा : दिल्ली पुलिस के खांटी अन्याय वाले रवैये ने इस बूढ़े पुलिस वाले की अंतरात्मा को झकझोर दिया । राज्य की दुर्भावनापूर्ण मंशा पुलिस की कार्रवाई में दिखती है , जिसने सप्ताहांत में गिरफ्तारियां की , जव अदालतें बंद होती हैं और वकील उपलब्ध नहीं होते । यह यूएपीए ( गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम ) के
नियमित इस्तेमाल से भी प्रकट होती है । यह असाधारण . तरीके से कठोर कानून है , जिसके प्रावधान ( जैसा कि एक कानूनी विश्लेषक ने लिखा ) , आपराधिक रूप से अत्यधिक , व्यापक रूप से अस्पष्ट और मौलिक अधिकारों का राज्य प्रायोजित उल्लंघन का मनमाना कानून है । ( ( https://www.article-14.com/post/how-the-uapa repackages - ideas - as - crimes ) . पुलिस का पक्षपात भरा रवैया सबूत है कि वह राजनीतिक वैचारिकता के अनुरूप व्यवहार करती है । अहिंसक किसानों के समर्थन में ट्वीट करने पर एक पर्यावरण कार्यकर्ता को देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया जाता है , जबकि सरकार के विरोधियों को गोली मार देने के लिए कहने वाले राजनेता का मंत्री पद बचा रहता है । वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा सत्ताधारी राजनेताओं से आदेश लेना भारत में पुरानी परंपरा है । महाराष्ट्र का मामला इसका ताजा उदाहरण है । पर मोदी - शाह सरकार जिस तरह पुलिस बल को सांप्रदायिक बना रही है , वह ज्यादा परेशान करता है । द इंडियन एक्सप्रेस में पिछले दिनों छपे एक लेख में सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय ने , जिनकी साख रिवेरो जैसी है , मध्य प्रदेश के कुछ मुस्लिम घरों में हिंदू उपद्रवियों द्वारा सिलसिलेवार हमलों का ब्योरा दिया है । इन हमलों के ' एक वीडियो में दिखता है कि भगवा झंडे और त्रिशूल लिए बढ़ते दो हिंदू उपद्रवियों के बीच एक पुलिस इंस्पेक्टर का सिर शर्म से झुका हुआ है । ' राय लिखते हैं कि वह इंस्पेक्टर शर्मिदा था , क्योंकि कुछ गुंडे । को लूट रहे थे और असहाय स्त्री - पुरुषों को पीट रहे थे , तब वह इंस्पेक्टर और उनके साथी यह सब कुछ चुपचाप देखने के लिए विवश थे । इस दृश्य ने राय को झकझोर दिया । इस कारण उन्हें लिखना पड़ता है , ' मध्य प्रदेश पुलिस का एक नया अलिखित मैनुअल सामने आया है , जिसके मुताबिक , पुलिस को अब कानून तोड़ने वालों को नहीं रोकना है । इसके बजाय उसे पीड़ितों को अपना घर छोड़कर बाहर चले जाने के लिए कहना है , ताकि उपद्रवियों को सुविधा हो । भारतीय राजनीति में पैसे और राज्य तंत्र की भूमिका दौर हमेशा ही रही है , पर 2014 से पहले ये ऐसी निर्णायक नैतिक भूमिका में नहीं थे । चुनाव आयोग द्वारा विभिन्न राज्यों के हैं ,
भूमिका लिए तैयार किया गया चुनावी शेड्यूल लगता है कि सत्तारूढ़ दल के प्रचार अभियान की सुविधा के लिए तैयार किया जाता है । राजनीतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए सीबीआई और इंडी का इस्तेमाल कांग्रेस के समय भी होता रहा था , पर भाजपा इसे एक अलग स्तर पर ले गई है । केंद्रीय ताकत की धमकी और भाजपा की भरी जेव के तालमेल से विपक्ष की सरकार गिराने का ताजा उदाहरण छोटा - सा केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी है । और जब यह कॉलम लिखा जा रहा था , तब तमिलनाडु में एक बड़े विपक्षी दल के परिवार पर छापा पड़ा , तो असम में भाजपा के एक मंत्री ने अपने एक विरोधी को धमकी दी कि उसके पीछे एनआईए को लगा दिया जाएगा । गुजरात में पूर्ण सत्ता की लक्ष्य पूर्ति में मोदी - शाह के तीन सहयोगी थे : प्रतिबद्ध आईएएस अधिकारी व पुलिस वल , आज्ञाकारी तथा प्रोपेगेंडा फैलाने वाला मीडिया और वशवर्ती न्यायपालिका । केंद्र में भी मोदी - शाह ने वही तरीका अपनाया है । इसमें उन्हें थोड़ी कम सफलता मिली है , तो इसके तीन कारण हैं : कई बड़े राज्य भाजपा शासित नहीं हैं , वेशक बड़े हिंदी अखबार और ज्यादातर अंग्रेजी व हिंदी टीवी चैनल्स भाजपा की लाइन पर चलते हैं पर कुछ अंग्रेजी अखबार व वेबसाइट्स अब भी स्वतंत्र हैं , तथा वेशक अदालतें कमजोर हैं पर कुछ न्यायाधीश कुछ अवसरों पर व्यक्तिगत अधिकार तथा अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े होते हैं । इसके बावजूद मोदी - शाह जो चाहते हैं , और भारत जिस दिशा में बढ़ रहा है , वह स्पष्ट है । आशीष खेतान को आखिरी बार उद्धृत करता हूं : ' बहुसंख्यकवाद के शासन को कानून की बाधा नहीं , लोकतंत्र के ' मुलम्मे में संविधान पर जोर नहीं , अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों को कमतर बताना , हिंदू दंगाइयों के लिए दंडमुक्ति , जबकि विरोधी विचारधारा वालों की गिरफ्तारी व जेल , कार्यकर्ताओं व मानवाधिकार संगठनों के खिलाफ मुकदमे , राजनीतिक विपक्ष और विरोधियों को निशाना बनाने के लिए सांस्थानिक और न्यायिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग - किसी भी विपक्ष को तोड़ने के लिए मोदी जिस व्यवस्थागत तरीके से राज्यशक्ति का इस्तेमाल करते हैं , भारत में उसकी मिसाल नहीं है । जिस समाज में लोग पुलिस पर भरोसा करने के बजाय उससे डरते हों , जहां किसी की निर्दोषिता या दोष का निर्धारण उसके धर्म या राजनीतिक वैचारिकता के आधार पर हो - यही तो ' गुजरात मॉडल के नतीजे हैं । सांस्थानिक स्तर पर आज हम संविधान के आदर्शों से आपातकाल के दौर से भी बहुत दूर चले गए हैं , जबकि सामाजिक और नैतिक स्तरों पर 26 जनवरी , 1950 से बहुत दूर चले गए हैं , जब संविधान को लागू किया गया था ।

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