मौर्योत्तर कालमौर्योतर काल:-
मौर्योतर काल:-
सामान्यतः 200 ईसा-पूर्व से मौर्योत्तर काल की शुरूआत मानी
जाती है।
पूर्वी भारत, मध्य भारत और दक्कन में मौर्यों के स्थान पर कई
स्थानीय शासक सत्ता में आए, जैसे शुंग, कण्व, और सातवाहन।
पश्चिमोत्तर भारत में मौर्यों के स्थान पर मध्य एशिया से आकर
जमे कई राजवंशों ने अपना आसन जमाया।
शुंग वंश:-
पुष्यमित्र शुंग द्वारा मौर्य शासक वृहद्रथ की हत्या के बाद इस
वंश की स्थापना 185 ई. पू. में हुई।
पुष्यमित्र शुंग ने संभवतः दो अश्वमेध यज्ञ किए।
बौद्ध ग्रथों के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने ‘अशोक’ द्वारा निर्मित
84,000 स्तूपों को नष्ट कर दिया।
कण्व वंश:-
शुंग वंश के अन्तिम सम्राट् ‘देवभूति’ की हत्या के बाद ‘वासुदेव’ ने
75 ई. पू. में ‘कण्व वंश’ की स्थापना की।
हिन्द-यूनानी (इण्डो-ग्रीक):-
लगभग 200 ई. पू. से बार-बार हमले होने लगे। सर्वप्रथम
यूनानियों ने हिन्दूकुश पार किया। वे उत्तर अफगानिस्तान के
अन्तर्गत वक्षु (ओक्सस) नदी के दक्षिण बैक्ट्रिया में राज करते
थे।
भारत की सीमा में सर्वप्रथम प्रवेश ‘डेमेट्रियस प्रथम’ ने किया
था।
इसने ‘साकल’ को अपनी राजधानी बनाई थी।
इसके बाद ‘यूक्रेटाइड्स’ शासक बना। इसकी राजधानी ‘तक्षशिला’
थी।
सबसे अधिक विख्यात हिन्द-यूनानी शासक हुआ मिनान्दर। वह
मिलिन्द नाम से भी जाना जाता है। उसकी राजधानी पंजाब में साकल
(आधुनिक सियालकोट) में थी, और उसने गंगा-यमुना दोआब पर
आक्रमण किया।
उसे नागसेन ने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। नागार्जुन इस नागसेन का
ही नामान्तर है।
मिनान्दर ने नागसेन से बौद्ध धर्म पर अनेक प्रश्न पुछे। ये प्रश्न
और नागसेन द्वारा दिए गए उनके उत्तर एक पुस्तक के रूप में
संगृहित हैं जिसका नाम है ‘मिलिन्दपन्हों’ अर्थात् ‘मिलिन्द के
प्रश्न’।
सर्वप्रथम इण्डो-ग्रीकों द्वारा ही भारत में लेखयुक्त सिक्के चलाए
गए।
सबसे पहले भारत में हिन्द-यूनानियों ने ही सोने के सिक्के जारी किए,
जिनकी मात्रा कुषाणों के शासन में बढ़ी।
हिन्द-यूनानी शासकों ने भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में यूनान
की प्राचीन कला चलाई जिसे ‘हेलेनिस्टिक आर्ट’ कहते हैं।
शक:-
यूनानियों के बाद शक आए।
शकों की पाँच शाखाएँ थीं और हर शाखा की राजधानी भारत और
अफगानिस्तान में अलग-अलग भागों में थी।
भारतीय स्रोतों में शकों को ‘सीथियन’ नाम दिया गया है।
लगभग 58 ई. पू. में उज्जैन में एक राजा हुआ। उसने शकों से युद्ध
किया, उन्हें पराजित किया और अपने ही समय में उन्हें बाहर खदेड़
देने में सफल हो गया। वह अपने को ‘विक्रमादित्य’ कहता था।
विक्रम संवत् नाम का एक नया संवत् 57 ई. पू. में शकों पर विजय
से आरम्भ हुआ। तब से विक्रमादित्य एक स्पृहणीय उपाधि हो गया,
ऊँची प्रतिष्ठा और सत्ता का प्रतीक बन गया।
भारतीय इतिहास में विक्रमादित्यों की संख्या 14 तक पहुँच गई है।
सबसे अधिक विख्यात शक शासक ‘रुद्रदामन् प्रथम’ (130-150
ई.) हुआ। वह इतिहास में इसलिए प्रसिद्ध है कि उसने काठियावाड़
के अर्धशुष्क क्षेत्र की मशहूर झील सुदर्शन सर का जीर्णोद्धार
किया। यह झील बहुत पुराने समय मौर्य काल की है और दीर्घ काल
से सिंचाई के काम में आती रही है।
पार्थियाई का महत्त्व:-
पश्चिमोत्तर भारत में शकों के आधिपत्य के बाद पार्थियाई लोगों का
आधिपत्य हुआ।
प्राचीन भारत के अनेक संस्कृत ग्रंथों में इन दोनों जनों के एक साथ
उल्लेख शकपह्लव के रूप में मिलते हैं।
पार्थियाई लोगों का मूल वास स्थान ईरान में था।
सबसे प्रसिद्ध पार्थियाई राजा हुआ ‘गोन्दोफिर्नस’। उसके शासन
काल में ‘सेन्ट टामस’ ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए भारत
आया था।
कुषाण:-
पार्थियाइयों के बाद कुषाण आए, जो ‘यूची‘ और ‘तोखारी‘ भी
कहलाते हैं।
वे उत्तरी मध्य एशिया के हरित मैदानों के खानाबदोश लोग थे और
चीन के पड़ोस में रहते थे।
कुषाणों के दो राजवंश थे जो एक के बाद एक आए व पहले राजवंश
की स्थापना ‘कडफिस’ नामक सरदारों के एक घराने ने की। उसका
शासन 50 ई. से 28 वर्षों तक चला। इसमें दो राजा हुए। पहला
हुआ ‘कडफिस प्रथम’, जिसने हिन्दूकुश के दक्षिण में सिक्के चलाए।
उसने रोमन सिक्कों की नकल करके तांबे के सिक्के ढलवाये।
दूसरा राजा हुआ ‘कडफिस द्वितीय’ उसने बड़ी संख्या में स्वर्ण
मुद्राएँ जारी कीं और अपना राज्य सिन्धु नदी के पूरब में फैलाया।
कडफिस राजवंश के बाद ‘कनिष्क राजवंश’ आया। इस वंश के
राजाओं ने ऊपरी भारत और निम्न सिन्धु घाटी में अपना प्रभुत्व
फैलाया।
आरम्भिक कुषाण राजाओं ने बड़ी संख्या में स्वर्ण मुद्राएँ जारी कीं।
उनकी स्वर्ण मुद्राएँ धातु की शुद्धता में गुप्त स्वर्ण मुद्राओं से
उत्कृष्ट हैं।
मथुरा में जो कुषाणों के सिक्के, अभिलेख, संरचनाएँ और मूर्तियाँ
मिली हैं उनसे प्रकट होता है कि मथुरा भारत में कुषाणों की द्वितीय
राजधानी थी।
पहली राजधानी पुरुषपुर या पेशावर में थी, जहाँ कनिष्क ने एक मठ
और एक विशाल स्तूप का निर्माण कराया।
कनिष्क सर्वाधिक विख्यात कुषाण शासक था।
उसने 78 ई. में एक संवत् चलाया जो ‘शक संवत्’ कहलाता है और
भारत सरकार द्वारा प्रयोग में लाया जाता है।
शकों और कुषाणों ने पगड़ी, ट्यूनिक (कुरती), पाजामा और भारी
लम्बे कोट चलाए।
कुषाणों ने रेशम के उस प्रख्यात मार्ग पर नियन्त्राण कर लिया जो
चीन से चलकर कुषाण साम्राज्य में शामिल मध्य एशिया और
अफगानिस्तान से गुजरते हुए ईरान जाता था, और पूर्वी
भूमध्यसागरीय अंचल में रोमन साम्राज्य के अन्तर्गत पश्चिम
एशिया जाता था। यह रेशम मार्ग कुषाण का एक बड़ा आय-स्रोत
था।
भारत में बड़े पैमाने पर सोने का सिक्का चलाने वाले प्रथम शासक
कुषाण ही थे।
कुषाण शासक शिव और बुद्ध दोनों के उपासक थे। तदनुसार कुषाण
मुद्राओं पर हम इन दोनों देवताओं के चित्र पाते हैं।
कई कुषाण शासक वैष्णव हो गए। इस कोटि में निश्चित रूप से
कुषाण शासक वासुदेव आता है।
ईस्वी सन् के आरम्भ से बुद्ध की प्रतिमा बननी प्रारंभ हुई।
कनिष्क महायान का महान् संरक्षक हो गया। उसने कश्मीर में बौद्धों
की एक परिषद् आयोजित की। पार्षदों ने 3,00,000 शब्दों में एक
ग्रन्थ की रचना की जिसमें तीनों पिटकों या बौद्ध साहित्य की
पिटारियों की पूरी तरह व्याख्या की गई।
मौर्योत्तर काल में ‘महायान संप्रदाय’ का ज्यादा विकास हुआ।
कुषाणों के समय ‘गांधार कला’ का विकास हुआ।
मथुरा कला, देशी कला शैली थी।
गांधार कला में हेलेनिस्टिक प्रभाव (यूनानी प्रभाव) दृष्टिगत होता
है।
महायान संप्रदाय इससे प्रभावित हुआ था।
कनिष्क की शिरोहिन खड़ी विख्यात मूर्ति मथुरा शैली में बनी है,
जिसके निचले भाग में कनिष्क का नाम खुदा है।
विदेशी राजाओं ने संस्कृत साहित्य को संरक्षण-संपोषण किया।
काव्य शैली का पहला नमूना रुद्रदामन् का काठियावाड़ अभिलेख है
जिसका समय लगभग 150 ई. है। यह संस्कृत में लिखा प्रथम
अभिलेख है। इसके बाद से अभिलेख प्रांजल संस्कृत भाषा में लिखे
जाने लगे थे।
‘अश्वघोष’ चतुर्थ बौद्ध संगीति का उपाध्यक्ष था।
‘अश्वघोष’ कनिष्क का दरबारी था।
‘अश्वघोष’ ने बुद्ध की जीवनी ‘बुद्धचरित’ के नाम से लिखी।
अश्वघोष ने ‘सौन्दरानन्द’ नामक काव्य भी लिखा जो संस्कृत काव्य
का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
कनिष्क को पतलून और लम्बे जूतों में चित्रित किया गया है।
चमड़े के जूते बनाने का प्रचलन भारत में सम्भवतः इसी काल में
आरम्भ हुआ।
भारत में चले ताँबे के कुषाण कालीन सिक्के रोमन सिक्कों की नकल
थे। इसी तरह भारत में कुषाणों ने जो सोने के सिक्के ढलवाए वे रोमन
स्वर्णमुद्राओं की नकल थे।
सातवाहन युग:-
मध्य भारत में मौर्यों के उत्तराधिकारी सातवाहन हुए।
सातवाहनों का सबसे पुराना अभिलेख ईसा-पूर्व पहली सदी का है,
जब उन्होंने कण्वों को पराजित कर मध्य भारत के कुछ भागों में
अपनी सत्ता स्थापित की।
सातवाहन वंश का संस्थापक ‘सिमुक’ था।
प्रथम योग्य शासक ‘सातकर्णि प्रथम’ था।
सातकर्णि प्रथम ने दो अश्वमेध यज्ञ तथा एक राजसूय यज्ञ
किया।
सातवाहन शासक ‘हाल’ के राजसभा में ‘गुणाढ्य’ नामक कवि निवास
करते थे। इन्होंने ‘वृहत्कथा’ नामक पुस्तक लिखी।
सातवाहन वंश के ऐश्वर्यपूर्ण शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि
(106-130 ई) ने अपने को एकमात्र ब्राह्मण कहा, शकों को
हराया और अनेक क्षत्रिय शासकों का नाश किया।
गौतमीपुत्र शातकर्णि ने ‘वेणकटक स्वामी’ की उपाधि धारण की।
गौतमीपुत्र के उत्तराधिकारियों ने 220 ई. तक राज किया। इसके
प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी वासिष्ठीपुत्र पुलुमायिन् (130-154 ई.)
के सिक्के और अभिलेख आन्ध्र में पाए गए हैं, जो बताते हैं कि यह
क्षेत्र दूसरी सदी के मध्य तक सातवाहन राज्य का अंग बन चुका
था। उसने अपनी राजधानी आन्ध्र प्रदेश के औरंगाबाद जिले में
गोदावरी नदी के किनारे पैठान या प्रतिष्ठान में बनाई।
सौराष्ट्र (काठियावाड़) के शक शासक रुद्रदामन् प्रथम (130-150
ई.) ने सातवाहनों को दो बार हराया।
यज्ञश्री शातकर्णि (165-194 ई.) ने उत्तर कोंकण और मालवा
को शक शासकों से वापस ले लिया। वह व्यापार और जलयात्रा का
प्रेमी था।
सातवाहनों ने स्वर्ण का प्रयोग बहुमूल्य धातु के रूप में किया होगा
क्योंकि उन्होंने कुषाणों की तरह सोने के सिक्के नहीं चलाए। उनके
सिक्के अधिकांश सीसे के हैं जो दक्कन में पाए जाते हैं। उन्होंने
पोटीन, ताँबे और कांसे की मुद्राएँ भी चलाई।
भारी संख्या में मिले रोमन और सातवाहन सिक्कों से बढ़ते हुए
व्यापार का संकेत मिलता है।
गौतमीपुत्र शातकर्णि ने कहा है कि उसने विच्छिन्न होते चातुर्वण
(चार वर्णों वाली व्यवस्था) को फिर से स्थापित किया और वर्ण-
संकर (वर्णों और जातियों के सम्मिश्रण) को रोका।
ब्राह्मणों को भूमिदान या जागीर देने वाले प्रथम शासक सातवाहन ही
हुए।
सातवाहनों में हमें मातृतंत्रात्मक ढाँचे का आभास मिलता है। उनके
राजाओं के नाम उनकी माताओं के नाम पर रखने की प्रथा थी।
किन्तु सातवाहन राजकुल पितृतंत्रात्मक था क्योंकि राजसिंहासन का
उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था।
सातवाहनों के समय में जिला को अशोक के काल की तरह ही ‘आहर’
कहते थे। उनके अधिकारी मौर्य काल की तरह ही, अमात्य और
महामात्य कहलाते थे।
सेनापति को प्रान्त का शासनाध्यक्ष या गवर्नर बनाया जाता था।
ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासन का काम ‘गौल्मिक’ को सौंपा जाता था।
गौल्मिक एक सैनिक टुकड़ी का प्रधान होता था जिसमें नौ रथ, नौ
हाथी, पच्चीस घोड़े और पैंतालीस पैदल सैनिक होते थे।
सातवाहन के अभिलेखों में कटक और स्कन्धावार शब्दों का खूब
उल्लेख मिलता है। वे सैनिक शिविर और
सातवाहनों ने ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर-मुक्त ग्रामदान
देने की प्रथा आरम्भ की।
सातवाहन राज्य में सामन्तों की तीन श्रेणियाँ थीं। पहली श्रेणी का
सामन्त राजा कहलाता था और उसे सिक्का ढालने का अधिकार रहता
था। द्वितीय श्रेणी का महाभोज कहलाता था, और तृतीय श्रेणी का
सेनापति।
सातवाहन शासकों ने भिक्षुओं को ग्रामदान दे-देकर बौद्ध धर्म को
बढ़ाया। उनके राज्य में बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का
बोलबाला था, खासकर शिल्पियों के बीच।
‘चैत्यों’ का उपयोग वर्षा काल में भिक्षुओं के निवास के लिए होता
था।
‘स्तूप’ एक गोल स्तम्भाकार ढाँचा है जो बुद्ध के किसी अवशेष के
ऊपर खड़ा किया जाता था। अमरावती स्तूप का निर्माण लगभग
200 ई. पू. में आरम्भ हुआ।
अमरावती का स्तूप भित्ति-प्रतिमाओं से भरा हुआ है, जिनमें बुद्ध के
जीवन के विभिन्न दृश्य उकेरे हुए हैं।
नागार्जुनकोंडा सातवाहनों के उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के काल में
अपने उत्कर्ष की चोटी पर था।
सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी। सभी अभिलेख इसी भाषा
में और ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए हैं।
‘गाथासप्तशती,’ सातवाहन नरेश ‘हाल’ की रचना बताई जाती है।
मौर्योत्तर युग में शिल्प, व्यापार और नगर
मौर्यपूर्व काल में मथुरा शाटक नामक एक विशेष प्रकार के वस्त्र
के निर्माण का एक प्रमुख केंन्द्र बन गया।
तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली नगर के उपान्तवर्ती उरेऊ में ईंटों का
बना एक रंगाई का हौज मिला है। अरिकमेदु में भी इस तरह के हौज
मिले हैं। ये हौज ईसा की पहली-तीसरी सदियों के हैं।
शिल्पी लोग आपस में संगठित होते थे, जिनके संगठन का नाम
‘श्रेणी’ था। इस काल के शिल्पियों की कम-से-कम चैबीस-पच्चीस
श्रेणियाँ प्रचलित थीं।
ज्ञात अधिकतर शिल्पी मथुरा क्षेत्र में तथा पश्चिमी दक्कन में जमे
थे, जो पश्चिमी समुद्र तट की ओर जाने वाले व्यापार-मार्ग पर
पड़ते हैं।
इस काल की सबसे बड़ी आर्थिक घटना थी भारत और पूर्वी रोमन
साम्राज्य के बीच फूलता-फलता व्यापार।
ईसा की पहली सदी से व्यापार मुख्यतः समुद्री मार्ग से होने लगा।
पश्चिमी समुद्र तट पर भड़ौच और सोपारा, तथा पूर्वी तट पर
अरिकमेदु और ताम्रलिप्ति था। इन सभी बन्दरगाहों में भड़ौच सबसे
महत्त्वपूर्ण और उन्नतिशील था।
उत्तरापथ तक्षशिला से चलकर आधुनिक पंजाब से होते हुए यमुना के
पश्चिम तट पहुँचता था और यमुना का अनुसरण करते हुए दक्षिण की
ओर मथुरा पहुँचता था। फिर मथुरा से मालवा के उज्जैन पहुँचकर वहाँ
से पश्चिमी समुद्र तट पर भड़ौच जाता था। उज्जैन में आकर एक
और मार्ग उससे मिलता था, जो इलाहाबाद के समीप कौशाम्बी से
निकला था।
रोम वालों ने सबसे पहले देश के सुदूर दक्षिणी हिस्से से व्यापार
आरम्भ किया; इसीलिए उनके सबसे पहले के सिक्के तमिल राज्यों में
मिले हैं, जो सातवाहन के राज्यक्षेत्र के बाहर हैं।
रोम वाले मुख्यतः मसालों का आयात करते थे जिनके लिए दक्षिण
भारत मशहूर था।
रेशम चीन से सीधे रोमन साम्राज्य को अफगानिस्तान और ईरान से
गुजरने वाले रेशम-मार्ग से भेजा जाता था।
रोमन लोग भारत को शराब, शराब के दोहत्थे कलश और मिट्टी के
अन्यान्य प्रकार के पात्र भेजते थे। ये वस्तुएँ पश्चिमी बंगाल के
तामलुक, पांडिचेरी के निकट के अरिकमेदु और दक्षिण भारत के कई
अन्य स्थानों में खुदाई में मिली हैं।
रोम से भारत आई वस्तुओं में सबसे महत्त्व के हैं ढेर-सारे रोमन
सिक्के, जो प्रायः सोने और चाँदी के हैं।
रोमन लेखक प्लिनी ने 77 ई. में लैटिन में लिखे ‘नेचुरल हिस्ट्री’
नामक अपने विवरण में दुख भरे शब्दों में कहा है कि ‘‘भारत के साथ
व्यापार करके रोम अपना स्वर्ण भंडार लुटाता जा रहा है।’’
पश्चिम के लोगों को भारतीय गोल मिर्च इतनी प्रिय थी कि संस्कृत
में गोल मिर्च का नाम ही पड़ गया ‘यवनप्रिय।’
कुषाण सम्भवतः मध्य एशिया से सोना प्राप्त करते थे। उन्हें यह
सोना या तो कर्नाटक से मिला होगा या दक्षिण बिहार की ढालभूम
स्वर्ण-खानों से, जो बाद में उनके अधिकार में आ गईं।
रोम से सम्पर्क के फलस्वरूप कुषाणों ने दीनार सदृश स्वर्णमुद्राएँ
जारी कीं, जो गुप्तों के शासन काल में खूब प्रचलित हुईं।
परन्तु स्वर्ण मुद्राओं का प्रयोग रोजमर्रे के लेन-देन में नहीं होता
होगा, ये लेन-देन सीसे, पोटीन या ताँबे के सिक्कों से चलते थे।
कुषाणों ने उत्तर और पश्चिमोत्तर भारत में ताँबे के सिक्के सबसे
अधिक संख्या में जारी किए।
सातवाहन काल में पश्चिमी और दक्षिणी भारत में तगर (तेर),
पैठान, धान्यकटक, अमरावती, नागार्जुनकोंडा, भड़ौच, सोपारा,
अरिकमेदु, कावेरी-पट्टनम ये सभी समृद्ध नगर थे। तेलंगाना में कई
सातवाहन बस्तियाँ खुदाई में निकली हैं।
पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नगर इसलिए फूलते-फलते रहे
कि कुषाणशक्ति का केन्द्र पश्चिमोत्तर भारत था।
भारत में अधिकतर कुषाण नगर मथुरा से तक्षशिला जाने वाले
पश्चिमोत्तर मार्ग या उत्तरापथ पर पड़ते थे।
मथुरा में ‘सींख’ की खुदाई में कुषाण काल के सात स्तर दिखते हैं
जबकि गुप्त काल के मात्र एक स्तर।
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