मुफ्त उपहार कि राजनीती में कुछ नहीं मिलता है । मुफ्त उपहार देने कि राजनीती कि कीमत बहुत मायने में बहुत ज्यादा है। उसका असर राज्य के खजाने पर पड़ता है।वर्ष 2012-2013 के बाद तमिल नाडु राजस्व अधिशेष वाले राज्य वाले राज्य से राजस्व घाटे वाले राज्य कि में चला गया।
त मिलनाडु के मदुरै दचिण निर्वाचन क्षेत्र के 33 वर्षीय निर्दलीय उम्मीदवार थुलम सरवनन इन दिनों सुर्खियों में है । अंदाजा लगाइए कि क्यों ? उन्होंने राज्य विधानसभा के चुनाव में अपने चुनावी वादों में छोटे हेलीकॉप्टर , सालाना एक करोड़ रुपये की जमा राशि , तीन मंजिला घर और चांद की यात्रा सहित कई और वादे किए हैं । उनके घोषणापत्र और उनके अजीबोगरीय याद एक अलग मुद्दे को सामने लाते हैं । जैसा कि उन्होंने एक टेलीविजन पत्रकार को बताया , ' मेरा उद्देश्य राजनीतिक दलों द्वारा दिए जा रहे मुफ्त के उपहार के पीछे भागते लोगों में जागरूकता फैलाना है । मैं चाहता हूं कि वे अच्छे उम्मीदवार को चुनें , जो सामान्य व विनम्र व्यक्ति हों । सरवनन का चुनाव चिह्न कूड़ेदान है , जो बेकार वोट का प्रतीक है , क्योंकि लोग वास्तव में मुफ्त ठपहार या झूठे वादों पर वोट करते हैं , जो कभी पूरे नहीं हो सकते । जैसे - जैसे तमिलनाडु , असम , केरल , पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में राज्य विधानसभाओं के चुनाव की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है , राजनीतिक पार्टियां किचन गैजेट्स , वर्तन , परिधान से लेकर होम लोन और नौकरियां , यानी हर तरह के वादे करके मतदाताओं को लुभाने की कोशिश में लगी हैं । तमिलनाडु में वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव के लिए अन्नाद्रमुक और द्रमुक , दोनों प्रमुख दलों के घोषणापत्रों में मुफ्त वादों की भरमार है । सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक का कहना है कि अगर पार्टी लौटकर फिर से सत्ता में आती है , तो सभी परिवारों को अम्मा वाशिंग मशीन , प्रत्येक परिवार में कम से कम एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी , जिनके पास अपना घर नहीं है , उन्हें अम्मा हाउसिंग स्कीम के तहत मुफ्त घर , प्रत्येक परिवार को हर साल छह गैस सिलिंडर मुफ्त दिया जाएगा । और अन्य चुनावी वादों के साथ शिक्षा ऋण माफी की भी घोषणा की गई है । अन्नाद्रमुक को चुनौती देने वाले और द्रमुक अध्यक्ष एम के स्टालिन ने हर परिवार की महिला मुखिया को प्रति महीने 1,000 रुपये देने , बेरोजगारी दूर करने
के लिए हर साल दस लाख नौकरियां देने , स्थानीय लोगों को नौकरियाँ में 75 फीसदी आरक्षण देने ( मेडिकल सीटों के लिए नीट खत्म करने ) , समवर्ती सूची से शिक्षा को राज्य सूची में वापस लाने और ईंधन , गैस , दूध समेत अन्य कई वस्तुओं की कीमतें कम करने का वादा किया है । तर्क दिया जा सकता है कि भारतीय चुनाव व्यवस्था में मुफ्त में चीजें देने की घोषणा कोई नई बात नहीं हैं । वर्ष 2016 में प्रो . संजय कुमार , जो अभी विकासशील समाज अध्ययन केंद्र ( सीएसडीएस ) के निदेशक हैं , ने एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में अपने एक लेख में कहा था कि सीएसडीएस द्वारा कराए गए एक अध्ययन के मुताविक , धन का एक बड़ा हिस्सा ( खाते में दर्ज और बेहिसाब , दोनों ) उम्मीदवारों द्वारा इस उम्मीद में खर्च किए जाते हैं कि इस तरह वे वोट खरीदकर चुनाव जीतेंगे और यह कि यह प्रथा अधिकांश राज्यों में विभिन्न रूपों में प्रचलित है । संजय कुमार ने कहा कि आंध्र प्रदेश , कर्नाटक , तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों में यह प्रथा बहुत अधिक प्रचलित है । उन्होंने बताया कि तमिलनाडु के 2011 के विधानसभा चुनाव के दौरान 70 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने या तो स्वयं उपहार या धन प्राप्त करने की बात की या उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों से दूसरों को उपहार या धन प्राप्त करने के बारे में सुना । अन्य राज्यों में ऐसे अनुभव वाले मतदाताओं का अनुपात कम है । कुमार ने कहा कि तमिलनाडु में , ' वोट के लिए रिश्वत ' देने की प्रथा चुनाव संस्कृति का एक आंतरिक हिस्सा बन गई है । वास्तव में पिछले डेढ़ दशक में राज्य में जिस तरह के लिए हर साल दस लाख नौकरियां देने , स्थानीय लोगों को नौकरियाँ में 75 फीसदी आरक्षण देने ( मेडिकल सीटों के लिए नीट खत्म करने ) , समवर्ती सूची से शिक्षा को राज्य सूची में वापस लाने और ईंधन , गैस , दूध समेत अन्य कई वस्तुओं की कीमतें कम करने का वादा किया है । तर्क दिया जा सकता है कि भारतीय चुनाव व्यवस्था में मुफ्त में चीजें देने की घोषणा कोई नई बात नहीं हैं । वर्ष 2016 में प्रो . संजय कुमार , जो अभी विकासशील समाज अध्ययन केंद्र ( सीएसडीएस ) के निदेशक हैं , ने एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में अपने एक लेख में कहा था कि सीएसडीएस द्वारा कराए गए एक अध्ययन के मुताविक , धन का एक बड़ा हिस्सा ( खाते में दर्ज और बेहिसाब , दोनों ) उम्मीदवारों द्वारा इस उम्मीद में खर्च किए जाते हैं कि इस तरह वे वोट खरीदकर चुनाव जीतेंगे और यह कि यह प्रथा अधिकांश राज्यों में विभिन्न रूपों में प्रचलित है । संजय कुमार ने कहा कि आंध्र प्रदेश , कर्नाटक , तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों में यह प्रथा बहुत अधिक प्रचलित है । उन्होंने बताया कि तमिलनाडु के 2011 के विधानसभा चुनाव के दौरान 70 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने या तो स्वयं उपहार या धन प्राप्त करने की बात की या उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों से दूसरों को उपहार या धन प्राप्त करने के बारे में सुना । अन्य राज्यों में ऐसे अनुभव वाले मतदाताओं का अनुपात कम है । कुमार ने कहा कि तमिलनाडु में , ' वोट के लिए रिश्वत ' देने की प्रथा चुनाव संस्कृति का एक आंतरिक हिस्सा बन गई है । वास्तव में पिछले डेढ़ दशक में राज्य में जिस तरह राज्य की चला गया । से मुफ्त की संस्कृति विकसित हुई है , वह काफी अनोखी है । ' उपहार अब ' कल्याणकारी वस्तुओं से उपभोक्ता वस्तुओं जैसे टीवी सेट , मोबाइल फोन , सिलाई मशीन , आदि के रूप में तब्दील हो गए हैं । कल्याणकारी उपायों और मुफ्त उपहारों में क्या अंतर है ? मुख्यधारा की मीडिया में अच्छे और बुरे कल्याणकारी व्यय के बीच अंतर अक्सर धुंधला होता है । सीवेज , पेयजल , पानी , बिजली , सार्वजनिक परिवहन जैसी सार्वजनिक वस्तुओं एवं सेवाओं की तुलना में शिक्षा और स्वास्थ्य को हम श्रेष्ठ मानते हैं । ये उस प्रकार की चीजें हैं , जहां बाजार वितरण का संतोषजनक तंत्र नहीं है । सीएसडीएस के उसी अध्ययन ने यह भी बताया कि जिन मतदाताओं ने उम्मीदवारों से पैसा लिया था , उनमें से कुछ ने ही उस पार्टी के लिए वोट डालने के प्रति बाध्यता महसूस की , जहां से उन्हें पैसे मिले थे । ज्यादातर मतदाताओं ने कहा कि उन्होंने अपनी इच्छानुसार मतदान किया । तमिलनाडु में कम से कम दो हालिया चुनावों - वर्ष 2019 में वेल्लोर संसदीय क्षेत्र और वर्ष 2017 में आर के नगर ( चेन्नई ) विधानसभा क्षेत्र- को प्रतिद्वंद्वी पार्टियों द्वारा नकदी वांटने और मुफ्त उपहार देने के कारण रद्द किया गया । विडंबना यह है कि तमिलनाडु में वास्तविक विकास के मामले में दिखाने के लिए काफी कुछ है , शिक्षा , चिकित्सा आदि के क्षेत्र में । और व्यक्तिगत रूप से , मैं मानव पूंजी के निर्माण पर खर्च किए गए पैसे को मुफ्त उपहार नहीं मानूंगी । लेकिन यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या चुनाव के समय किए गए वादे वास्तविक हैं , राज्य के खजाने पर उसका क्या असर पड़ेगा और क्या वे वादे वास्तव में जनता के लिए पूरे किए जाएंगे । ऐसे में निर्दलीय उम्मीदवार सरवनन का संदेश प्रासंगिक है । मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है । मुफ्त उपहार देने की राजनीति की कीमत कई मायनों में बहुत ज्यादा है । इसका असर राज्य के खजाने पर पड़ता है । यह याद किया जा सकता है कि 2012-13 के बाद तमिलनाडु राजस्व अधिशेष वाले राज्य से स्व घाटे वाले राज्य की श्रेणी में चला गया । यह राजनीति में प्रवेश करने वाले नए खिलाड़ियों के लिए बाधा भी उत्पन्न करता है , जिनके पास चुनाव लड़ने के लिए इतना पैसा नहीं होता है । नए आंगतुकों के प्रवेश के मार्ग में बाधा खड़ी करना स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत के खिलाफ है । उम्मीद है कि तमिलनाडु और जहां कहीं भी इस मुफ्त की राजनीति को चरम पर पहुंचाया जाता है , के मतदाता जल्द ही इन वादों की वास्तविकता देखना शुरू कर देंगे , क्योंकि चुनाव के समय राजनीतिक दलों द्वारा दिए जाने वाले मुफ्त के उपहार.उन्हीं करों से आते हैं , जो वे चुकाते हैं ।
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