गांधी का नैतिक विकास

गांधी का नैतिक विकास

लाइफ ऑफ महात्मा गांधी के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है , जिस पर रिचर्ड एटनबरा का ध्यान फिल्मका निर्माण कारहे थे फिशर की किताबका प्रकाशन गांधी की हत्या के एक वर्ष बाद 1949 महुआ था । इसके जानते हैं । यह किताब 1942 की गर्मियों में फिशर की भारत यात्रा पर आधारित थी । सेवाग्राम जाकर यहां के सर्वाधिक सात साल पहले उन्ननिए पीक विद गायी नाम से एक मॉम्बे में अबिडकर , सावरकर और जिन्ना के साथ बातचीत स फिशर को उनकी किताब मेरिकी लेखक अ तब गया था , जब यह 1982 में अपनी पुरस्कार विजेता पतली सी किताब लिखी थी , जिसके बारे में आज कम लोग प्रसिद्ध व्यक्ति से बात करने से पहले उन्होंने महान शहर की थी । किताब में फिशर ने एक जगह लिखा । जिन्ना ने मुझसे बात की । उन्होंने मुझे सहमत करने का प्रयास किया । मैने जब उनसे एक सवाल किया , तो मुझे लगा कि मानो मैंने कोई फोनोग्राफ रिकॉर्ड चालू कर दिया है । मैंने यह सब पहले सुन रखा था या फिर उन्होंने मुझे जो साहित्य दिया था , उसमें इन्हें याद में पढ़ सकता था । लेकिन जब मैंने गांधी से कुछ पूछा , तो मैंने महसूस किया कि यह एक . रचनात्मक प्रक्रिया की शुरुआत है । मैं देख और सुन सकता था कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है । जिन्ना के साथ बातचीत में मैं सिर्फ रिकॉर्ड पर सुई के घिसने की आवाज ही सुन सका । लेकिन मैं गांधी का अनुसरण कर सकता था , क्योंकि वह निष्कर्ष की तरफ आगे बढ़ रहे थे । इसलिए किसी साक्षात्कारकर्ता के लिए जिन्ना की तुलना में यह अधिक आकर्षक थे । यदि आप गांधी से ठीक तरह से टकराते हैं , तो • आप विचार का नया फलक खोलते हैं । उनके साथ साक्षात्कार खोज की नई यात्रा जैसा है और वह खुद कई बार अपनी कही बातों से हैरत में पड़ जाते हैं । सुनने और सीखने की यह क्षमता और प्रतिकूल तथ्य से टकराने के बाद अपने दृष्टिकोणों को बदलने की इच्छा , गांधी को स्पष्ट रूप से उनके समय के साथ ही हमारे समय के राजनीतिकों से अलग करती है । यह निरंतर अपनी पूर्वधारणाओं को लेकर सवाल करते थे और निरंतर अपने सहयोगियों और अपने आलोचकों से संवाद करते थे । नस्ल , जाति और लिंग पर गांधी के दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर इस पर विचार करें । गांधी ने कहीं अधिक समतावादी रुख अपनाने के याद इन सब मामलों में अपने प्रतिक्रियावादी पूर्वाग्रहों को समय के साथ त्याग दिया । नस्लवाद भारतीय संस्कृति में गहरे तक समाया हुआ है , जैसा कि पुरुषों में व्यापक रूप से व्याप्त ' गोरी ' दुल्हन लाने की चाहत में देखा जा सकता है । काठियावाड़ में बड़े होने के साथ गांधी ने निर्विवाद रूप से नस्लीय रूढ़ियों को अपना लिया था । इसीलिए , दक्षिण अफ्रीका में शुरुआती वर्षों में उन्होंने अफ्रीकी लोगों के बारे में उन्हें नीचा दिखाने वाली अनेक टिप्पणियां की , जिन्हें वह अपने साथी भारतीयों की तुलना में कमतर मानते थे । हालांकि समय के साथ अफ्रीकियों के प्रति गांधी का पूर्वाग्रह कम हो गया- जैसा कि उन्होंने 1908 में जोहान्सबर्ग में एक सार्वजनिक भाषण में कहा- ' सारी विभिन्न नस्लें आपस में मिलकर ऐसी सभ्यता को जन्म देंगी जिसे संभवतः दुनिया ने अभी देखा नहीं है । दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के अंत में गांधी एक 1946 से बांटुओं
नस्लवादी से गैर - नस्लवादी में बदल चुके थे । उनके दृष्टिकोणों का अभी और विकास होना था । अपने जीवन के अंतिम दशकों में वह सैद्धांतिक और सुसंगत नस्लवाद विरोधी बन चुके थे । वह अफ्रीकी - अमेरिकी कार्यकर्ताओं के संपर्क में थे और सेवाग्राम के आश्रम में उनकी मेजबानी करते थे और उनसे उनके अपने देश में नस्लीय पूर्वाग्रहों से लड़ने के लिए अहिंसा का रास्ता अपनाने का आग्रह करते थे , जैसा कि उन्होंने किया भी । गांधी जब तक दक्षिण अफ्रीका में रहे , उन्होंने भारतीयों के संघर्ष को अफ्रीकियों के संघर्ष से अलग रखा । बाद में आत्ममंथन में उन्होंने इसे अनुपयुक्त पाया । 1946 में जब दक्षिण अफ्रीका से भारतीयों का एक दल गांधी से मिलने आया तो . उन्होंने उनसे कहा कि उन्हें जुलुओं और बांटुओं ( अफ्रीकी जनजातियां ) के साथ भी मिलकर रहना . चाहिए । गांधी ने कहा , ' आज का नारा यह नहीं है , कि " एशिया एशियाई लोगों के लिए " या " अफ्रीका अफ्रीकी लोगों के लिए " , बल्कि धरती की सारी शोषित नस्लों की एकता , है । अपनी आत्मकथा में गांधी समुद्रपार की यात्रा के जरिये अपने मोढ़ बनिया समुदाय को चुनौती देने की बात करते हैं । हालांकि , 1915 में अपनी मातृभूमि लौटने तक नस्लीय भेदभाव की व्यापक समझ से गांधी दूर थे । दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान दलितों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार से वह काफी निराश हुए । उन्होंने छुआछूत का विरोध करने का संकल्प लिया , हालांकि उस समय तक वह खुद जाति व्यवस्था को सीधे चुनौती देने के प्रति अनमने थे । 1920 के दशक में उल्लेखनीय समाज सुधारक नारायण गुरु के अनुयायियों से प्रभावित होकर गांधी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल मंदिर में प्रवेश के लिए किया और दलित और जातिवादी हिंदुओं को एक साथ पूजा करने के लिए प्रेरित किया । 1930 के दशक में दलितों के महान उद्धारकर्ता बी आर आंबेडकर से मिली चुनौती और उकसावे के वाद गांधी ने और कड़ा सुधारवादी रुख अपनाने लगे । अब वह सकारात्मक कार्रवाई , सवर्णों और दलितों में भोजन का साझा और अंत में उनमें शादियों की वकालत करने लगे आलोचकों से संवाद और अपने खुद के अनुभव पर गांधी यह चिह्नित कर सके कि अलगाव ; पृथक्ककरण और भेदभाव की व्यवस्था के रूप में जाति के अस्तित्व के बने रहने का कोई कारण नहीं है । अपने जीवन में कालांतर में गांधी ने युवावस्था के नस्लीय और जातीय पूर्वाग्रहों को दूर कर लिया । लैंगिक विषय पर उनका नैतिक विकास पूरा नहीं हो सका । इसके बावजूद यह कोई कमतर नहीं था । अपने घरेलू जीवन में गांधी खांटी हिंदू मुखिया थे । सार्वजनिक जीवन में भी वह संभवतः ऐसे ही रहते , यदि उनका सामना दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्र विचार वाली दो यूरोपीय महिलाओं से नहीं होता । ये थीं , मिली ग्राहम , जो कि गांधी के दोस्त और उनके साथ रहने वाले हेनरी के आधार हो एक
पोलक की पली थी और दूसरी थी सोन्जा श्लेजिन जो कि गांधी के साथ उनके लॉ ऑफिस में काम करती थीं । महिलाओं को कमतर और अधीनस्थ के रूप में देखने के आटी गांधी को जब मिली के साथ एक घर में रहने का और सोन्जा के साथ एक ही ऑफिस में काम करने का मौका मिला , तब वह महिलाओं के स्वायत्त , नैतिक और सामाजिक संवाहक रूप से परिचित हो सके । इन्हीं अनुभवों ने 1913 में गांधी द्वारा आयोजित एक बड़े सत्याग्रह में भारतीय महिलाओं ( जिनमें कस्तूरबा भी थी ) की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त किया । भारत लौटने पर गांधी पहले महिलाओं को राष्ट्रवादी राजनीति से दूर रखने के पक्ष में थे , क्योंकि उन्हें भय था कि संकीर्णता में डूबा समाज सार्वजनिक रूप से पुरुषों और महिलाओं के साथ आने का विरोध करेगा । यहां भी , दो उल्लेखनीय महिलाओं ने उन्हें कहीं अधिक प्रगतिशील रुख अपनाने के लिए प्रेरित किया । ये थी , सरोजनी नायडू और कमलादेवी चट्टोपाध्याय । नायडू 1925 में ऐसे समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं , जब यूरोप और उतर अमेरिका में राजनीतिक पार्टियों का नेतृत्व किसी महिला के हाथ में नहीं था । चट्टोपाध्याय ने नमक सत्याग्रह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । बाद में , 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सैकड़ों महिला कार्यकर्ताओं ने , जिनमें कई समाजवादी रुझान वाली थी , हड़ताल और प्रदर्शनों का नेतृत्व किया और जेल में भी वक्त बिताया । नस्ल , जाति और लिंग ये सामाजिक भेदभाव के तीन मूलभूत आधार हैं । इसीलिए मैंने इन पर ध्यान केंद्रित किया और इनके संबंध में गांधी के दृष्टिकोण के विकास को समझने की कोशिश की । हालांकि अन्य विषयों पर भी वह निरंतर सीख रहे थे और आगे बढ़ रहे थे । उदाहरण के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रति उनका दृष्टिकोण । 1909 में अपनी किताब हिंद स्वराज में गांधी एक तकनीक विरोधी के रूप में सामने आए । हालांकि बाद के वर्षों में उन्होंने अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाया । दो सर्जनों- एक भारतीय और एक यूरोपीय- द्वारा किए गए सफल ऑपरेशन के बाद आधुनिक चिकित्सा के प्रति उनका नजरिया बदल गया । सी वी रमन जैसे वैज्ञानिकों से मुलाकात ने आधुनिक विज्ञान के तरीकों और प्रक्रियाओं के प्रति उन्हें प्रेरित किया । निश्चित रूप से यह संयोग नहीं है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा का शीर्षक , सत्य के मेरे प्रयोग , रखा । लुईस फिशर ने 1942 में लिखने के दौरान विचार किया कि गांधी के चरित्र में कसौटी की तरह शामिल आत्म निरीक्षण और आत्म आलोचना की क्षमता उनके प्रतिद्वंद्वी और साधी गुजराती मोहम्मद अली जिन्ना में स्पष्ट रूप से नदारद थी । 2021 में यह लिखते हुए मैं कह सकता हूं कि यह क्षमता आज सबसे शक्तिशाली भारतीय और गांधी की तरह गुजराती नरेंद्र मोदी में भी नहीं है । लुईस फिशर ने लिखा , गांधी से साक्षात्कार लेने का आनंद यह था कि उन्होंने सचमुच अपना मन खोल दिया और साक्षात्कारकर्ता को इजाजत दी कि वह देख सके कि मशीन सचमुच कैसे काम करती है । गांधी को पढ़ना , गांधी पर शोध करना , एक ऐसे इंसान का सामना करना है , जिनके अनुयायी और परिपूर्ण होने का दावा करते हैं , यहां तक कि महात्मा भी , लेकिन जो खुद को पतनशील और दोषपूर्ण मानते थे ।

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