संविधानविधान सभी नागरिकों को जीने का अधिकार देता है , जिसके लिए पर्याप्त पोषण का अधिकार अनिवार्य है ।
संविधानविधान सभी नागरिकों को जीने का अधिकार देता है , जिसके लिए पर्याप्त पोषण का अधिकार अनिवार्य है ।
1947 के बाद हमने काफी प्रगति की है , हरित क्रांति के जरिये हम खाद्य अधिशेष वाले देश बन गए हैं । 1960 के दशक तक हम खाद्य सहायता पर निर्भर थे , लेकिन अब हमारे खाद्य भंडारण गोदाम उससे अटे पड़े हैं । जरूरतमंदों को जनवितरण प्रणाली से मुफ्त अनाज दिया जाता है । आंगनवाड़ी में भोजन योजनाओं की पेशकश की जाती हैं । तमाम खामियों के बावजूद हम लगातार प्रगति कर रहे हैं भारत में खाद्य सुरक्षा का मुद्दा बच्चों में अल्प पोषण के विस्तार से परिलक्षित होता है । ताजा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चला है कि पांच वर्ष से कम उम्र के करीब 38.4 फीसदी
संपन्न शीर्ष परिवारों भी 20 फीसदी के करीब नाटेपन । कुपोषण के दुष्प्रभाव काफी ज्यादा हैं , जिनमें शारीरिक व मानसिक बीमारी , जल्द मृत्यु , मनोदैहिक प्रभाव और सामाजिक - आर्थिक बोझ भी शामिल हैं । अल्प- पोषण की समस्या के साथ - साथ हमें उन मांओं एवं बच्चों की अति - पोषण की समस्या से भी जूझना है , जो अत्यधिक ऊर्जा घनत्व से होता है । हालांकि हम यह सुनिश्चित करने में काफी हद तक सफल रहे हैं कि हमारी आबादी की भोजन तक पहुंच है , लेकिन हम यह सुनिश्चित करने में विफल रहे हैं कि इसमें उपलब्ध भोजन के प्रकारों में जरूरी
विविधता शामिल है । इसलिए करोड़ों भारतीयों का स्वास्थ्य खराब है । हमारे यहां कैलोरी की उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता है , जबकि खराब आहार विविधता के परिणामस्वरूप सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी भारत में आम है । इसलिए खाद्य सुरक्षा एक हासिल करने योग्य लक्ष्य लग सकती है , लेकिन पोषण सुरक्षा इससे दूर लगती है । इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स के अध्यक्ष डॉ बकुल पारेख जोर देते हैं कि पोषण संबंधी समस्याओं को हल करने के लिए स्थायी तौर पर संपूर्ण खाद्य समाधान देने की आवश्यकता है पूरक खुराक सुझाना दीर्घकालीन समाधान नहीं है । प्रसंस्कृत पूरक खाद्य सामग्री नुकसानदेह होती हैं , क्योंकि आम तौर पर उनमें ऊर्जा की सघनता होती है । हमें संस्कृति , परिवार और रसोई के अनुकूल संपूर्ण खाद्य समाधानों को देखना चाहिए , जो दीर्घकालिक और पूरे परिवार के लिए स्थायी पोषण समाधान हैं । कोविड महामारी के कारण भोजन की कमी और स्वास्थ्य प्रणाली में रुकावट के चलते महामारी के पहले वर्ष में कमजोर बच्चों की संख्या 60.7 लाख बढ़ सकती है । यह अपने आप में एक अलग और बड़ी महामारी है , जो अभी छिपी हुई है । भारत में पहले से मौजूद कुपोषण की समस्या को देखते हुए इसे रोकने के लिए इसका बाद में इलाज के बजाय बच्चों के अल्प - पोषण पर रोक लगानी चाहिए । चिकित्सा प्रबंधन सामुदायिक अभ्यास में पोषण विज्ञान को व्यावहारिक बनाने और एक बढ़ते बच्चे की बढ़ती पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । डॉक्टर , पैरामेडिकल स्टाफ और स्वास्थ्य
और कुपोषण से निपटने के लिए स्वास्थ्य हस्तक्षेप का नियमित पता लगाने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली के उपयोग की खातिर मजबूत नीति तैयार करना मौजूदा वक्त की आवश्यकता है । पोषण और पोषण शिक्षा में निवेश कार्यकर्ता सामूहिक रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य स्तरों पर पोषण संबंधी मान्यताओं और प्रथाओं में बड़ा बदलाव ला सकते हैं । पर लगता है कि हम ऐसा करने में विफल रहे हैं इसका मुख्य कारण आधुनिक चिकित्सा में अंतर्निहित सीमा है , जो बायोमेडिकल मॉडल से नियंत्रित है , जिसमें भोजन , जीवन शैली और रोकथाम के बजाय रोग और उसके चिकित्सीय इलाज पर ध्यान दिया जाता है । स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच अनिश्चितता कि पोषण समस्याओं से कौन निपटेगा तथा आम जनता के बीच भ्रम की स्थिति कि विशेषज्ञ सलाह किससे लें , भी इसके लिए जिम्मेदार है । पर सबसे प्रमुख कारण यह है कि डॉक्टरों को इसके लिए पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं मिला है । इसलिए पोषण को चिकित्सा शिक्षा के सभी स्तरों पर पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाने की तत्काल आवश्यकता है । जब तक ऐसा नहीं होगा , बच्चों में कुपोषण की समस्या बढ़ती रहेगी । पाठ्यक्रम में बदलाव के अलावा , हमें कुपोषण के मामलों में इस अभूतपूर्व उछाल से निपटने के लिए सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली के माध्यम से प्रदान की जाने वाली सेवाओं को भुनाने की आवश्यकता है । ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लगभग APTINI 91.6 फीसदी बच्चों की आंगनवाड़ी केंद्रों तक पहुंच है और ग्रामीण महिलाओं का स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के साथ लगातार संपर्क है । यह देखा गया है कि संवेदनशील आबादी में सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त खाद्य पदार्थों के बारे में पोषण शिक्षा के माध्यम से सीमित खाद्य सुरक्षा के साथ नियमित स्वास्थ्य देखभाल वितरण प्रणाली के जरिये शिशुओं के विकास और पूरक पोषण प्रथाओं में सुधार किया जा सकता है । विश्व स्तर पर पोषण में सुधार की प्रतिबद्धता - भूख खत्म करना दूसरा सतत विकास लक्ष्य है । विभिन्न क्षेत्र के लक्ष्यों के तहत , भारतीय राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति , 2017 में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों के बीच नाटेपन में कमी लाने का प्रस्ताव किया गया है । स्नातक चिकित्सा और नसिंग के प्रमुख घटक के रूप में पोषण पाठ्यक्रम की शुरुआत करना MEAN ण्यात पाठ्यक्रम और पहले हजार दिनों में शिशुओं के विकास और भोजन में सुधार करना निर्विवाद रूप से एक खर्चीला हस्तक्षेप है , जिससे मौजूदा और भावी पीढ़ी
-लेखक सिटीजन एलायंस एगेंस्ट मालन्यूट्रीशन के संस्थापक सदस्य है लाभान्वित होंगी ।
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