यहूदी धर्म धर्म-युद्ध, यहूदी राज्य की स्थापना

यहूदी धर्म  

धर्म-युद्ध

नौवीं से आठवीं शताब्दी ई. पू तक इज़राइल, असम के साथ चली आ रही पुरानी लड़ाई में उलझा रहा, परिणामस्वरूप इज़राइल में मुठ्टी भर अमीरों और ग़रीब जनता के बीच ध्रवीकरण हो गया। इस स्थिति से साहित्यिक या ज्ञानवान पैग़ंबरों की शुरुआत हुई, जिनमें से पहले अमोस थे। उन्होंने यह सोच आरंभ किया कि प्रतिज्ञापत्र के सामाजिक नैतिक नियमों के उल्लंघन से ईश्वर समुदाय के विरुद्ध हो जाएगा। आठवीं शताब्दी के अंत में जब असीरिया ने इज़राइल का विरोध किया, तो पैग़ंबर होसिया ने कहा कि ईश्वर को भुला देने के कारण नई मुसीबतों की शुरुआत हुई है। जूडा के राजा एहज़ के असीरिया के सामने समर्पण से आइज़े और माइक पैग़ंबरों को यहूदी भविष्यवाणी में युगांतक विचार शामिल करना पड़ा, जिसमें सही मायनों में भावी पवित्र धार्मिक समुदाय की बात की गई, जो पृथ्वी पर एक एक आदर्श शासक के नेतृत्व में एक सामान्य सामाजिक राजनीतिक इकाई के रूप में काम करे। बेबीलोनिया द्वारा जूडा पर विजय और बाद में यहूदियों के निर्वासन (597 ई. पू. से) से इस विचारधारा में भविष्यगामी तत्त्व को बल मिला। ऐसा ही जेरमाइ और आइज़ेकल की भविष्यवाणियों में था और इससे ड्यूटेरो ईसाइयों की भविष्यवाणी को भी बल मिला कि इज़राइल की पुनर्स्थापना से विश्व को इज़राइल के ईश्वर के प्रति समर्पित करने में मदद मिलेगी।

फ़ारस द्वारा बेबीलोन को हराए जाने से निर्वासन का अंत हुआ और जूडा फिर से हासिल हो गया (538 ई. पू.) इज़राइल को दुबारा स्थापित करने की मेसियानी आशाएँ अधूरी रह गईं, लेकिन मेलेकी द्वारा 'मोजेज़ की तोरा' के पालन की चेतावली के साथ पैग़ंबरी काल का अंत हो गया। 444 ई. पू में ...I ने तोरा को देश के क़ानून के रूप में मान्यता दी। इस तोरा को प्रकाशित किया जाना था। तोरा की इस प्रकार मान्यता से अलिखित क़ानून का व्यापक आधार बना, जो यहूदी धर्म की विशेषता है। सिकंदर महान् द्वारा 332 ई. पू. फ़िलिस्तीन पर विजय से यूनानी यहूदी धर्म  युग की शुरुआत हुई। यहूदी धर्म और संस्कृति यूनानी प्रभाव दूसरी शताब्दी ई. पू. के प्रारंभ में उस समय स्पष्ट हो गया, जब यूनान के यहूदी कट्टर पुरोहितों के प्रभाव में आ गए। एंटिओकस IV आइपिफ़निज़ द्वारा यहूदी धर्म के विरुद्ध आदेशों के फलस्वरूप मेकबीज़ ने विद्रोह किया और तभी से यहूदी और ईसाई धर्म में शहीदों का आर्विभाव हुआ। विद्रोह के बावजूद यूनानीवाद जारी रहा, जो जूडा के हेरोड I के काल (37 से 4 ई. पू.) के दौरान चरम पर पहुँचा। इसी काल में धार्मिक नेताओं के दो समूह बन गए। फ़ारसी, जो अलिखित क़ानून के दिव्य लेखन में विश्वास करते थे और सद्जोसी, जो तोरा के लिखित स्वरूप को मानते थे।

यहूदी धर्म के प्रमुख केंद्र

यूनानीवाद की अवधि में सीरिया, एशिया माइनर, बेबीलोनिया और विशेषतः अलेक्ज़ेंडर, मिस्र में यहूदी धर्म के प्रमुख केंद्र थे। पंचग्रंथका यूनानी भाषा में अनुवाद किया गया, जिससे यूनानीवाद का आकर्षण बढ़ा और मिस्र में , कविक और दर्शनशास्त्र का पर्याप्त साहित्य रचा गया।

यहूदी राज्य की स्थापना

63 ई. पू. से 135 ई. के दौरान रोम के शासन में स्वतंत्र यहूदी राज्य की स्थापना की कोशिशें की गईं। हेरोडियन, जीलॉट और कई अर्द्ध मठ समूहों ने यह कोशिश की और यह सभी तोरा के सख़्ती से पालन के पक्षधर थे। रोम काल के दौरान समस्त मानवता पर फिर से दिव्य संप्रभुता स्थापित किए जाने की इज़राइल की आशा आदर्श राजा के विचार पर केंद्रित होने के समय ईसाई धर्म का उदय सबसे महत्त्वपूर्ण जातीय घटनाक्रम था।

हालांकि   रोम की अच्छी शुरुआत हुई थी, लेकिन रोम से प्रतिकूल आदेशों के कारण विद्रोहों की लगातार असफल कोशिशें हुईं, इनमें से पहली (66-73) के दौरान 'दूसरा मंदिर' नष्ट कर दिया गया। इन त्रासदियों से यहूदी धर्म संकुचित हुआ और तालमुद का विकास हुआ।

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