भूख और कुपोषण न बनाए महामारी

भूख और कुपोषण न बने महामारी


राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने पांचवीं रिपोर्ट का पहला हिस्सा जारी कर दिया है । दूसरा भाग मई 2021 तक प्रकाशित होने के आसार हैं । राष्ट्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा 2020 को केंद्र मानकर स्वास्थ्य एवं चिकित्सा संबंधी रिपोर्ट प्रकाशित की है । संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ( एफएओ ) द्वारा भारत सहित पूरे विश्व में भूख , कुपोषण एवं बाल स्वास्थ्य पर चिंता व्यक्त की गई है । हर्ष का विषय है कि पिछले वर्ष का नोबेल पुरस्कार डेविड वेसली को मिला है , जो कि विश्व खाद्य कार्यक्रम के प्रमुख हैं । वहीं यह भी उल्लेखनीय है कि अमर उजाला उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों के गरीबी और कुपोषण के आंकड़े प्रकाशित कर रहा है । आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन के लगभग 30 वर्षों के बाद असमानता , भूख और कुपोषण की दर में वृद्धि देखी जा रही है । हालांकि समृद्धि के कुछ टापू भी अवश्य निर्मित हुए हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कोविड - 19

के असर से पैदा हो रहे आर्थिक एवं सामाजिक तनावों पर विस्तृत जानकारी हासिल की है । भारत को लेकर प्रकाशित आंकड़े चिंताजनक हैं । वैश्विक महामारी से उत्पन्न भुखमरी पर 107 देशों की जो सूची उपलब्ध है , उसके मुताबिक भारत 94 वें पायदान पर है । एक तरफ हम खाद्यान्न के मामले में न केवल आत्मनिर्भर हैं , बल्कि अनाज का एक बड़ा हिस्सा निर्यात करते हैं । वहीं दूसरी ओर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कुपोषित आबादी भारत में है । विश्व के 4.95 करोड़ बच्चों के मुकाबले भारत लंबाई के हिसाब से कम वजन के 2.55 करोड़ बच्चों का घर है । बच्चे के जन्म से लेकर तीन साल तक 1,000 दिन को ' सुनहरे दिन ' कहा जाता है । शुरुआती छह महीने निरंतर मां का दूध मिलना अनिवार्य है और शेष समय में ऐसा भोजन जो पोषक तत्वों सेशुरुआती छह महीने निरंतर मां का दूध मिलना अनिवार्य है और शेष समय में ऐसा भोजन जो पोषक तत्वों से

भरपूर हो । भारत में महिलाओं की पचास फीसदी से अधिक आबादी एनीमिया यानी खून की कमी से पीड़ित है । इसलिए ऐसे हालात में जन्म लेने वाले बच्चों का कम वजन होना लाजिमी है । राइट टु फूड कैंपेन नामक संस्था का विश्लेषण है कि पोषण गुणवत्ता में काफी कमी आई है और लॉकडाउन से पहले की तुलना में भोजन की मात्रा भी घट गई है । ऊंचे पैमाने में पारिवारिक आय में भी काफी कमी आई है । महामारी के बाद पैदा हुई भुखमरी . बेरोजगारी और कुपोषण को विस्थापन ने और भयानक

बना दिया । कोरोना संकट के दौरान लगभग 75 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन देने की व्यवस्था संचालित की गई । जब कभी विश्व व्यापार संगठन की शर्तों का हवाला देकर आर्थिक सुधारों के नाम पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर कटौती करने के प्रस्ताव आते हैं , वे भूख की महामारी के तांडव के रूप में नजर आने लगते हैं । सरकारी खरीद के द्वारा हमारे सरकारी गोदामों में अतिरिक्त खाद्यान्न नहीं होता , तो देश आज अराजकता की स्थिति में होता और भूख के कारण दंगे और मौत दोनों का सामना करता । एक सबक संक्रमण संकट का सरकारी वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करना भी है । निजी हाथों में इसके संचालन के बाद जरूरतमंद लोगों के भूख से मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा । संक्रमण संकट के दौर में आगामी बजट पर भी सभी वर्गों की निगाह टिकी है । हम बमुश्किल एक फीसदी राशि स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं । निजी क्षेत्रों की चिकित्सा व्यवस्था ने गरीब और मध्यम वर्ग के मरीजों को लाचार और विवश बनाकर छोड़ दिया है । लिहाजा आगामी बजट लगभग तीन फीसदी की बढ़ोतरी के साथ लागू होना चाहिए , जिससे गरीब मरीज भी इलाज कराने योग्य हो सकें । भारत सरकार एवं वैज्ञानिकों के प्रयास निःसंदेह सराहनीय हैं कि आर्थिक संकट में भी सस्ती वैक्सीन उपलब्ध कराने के सभी प्रयास जारी हैं । केंद्र सरकार के साथ - साथ राज्य सरकार भी स्वास्थ्य बजट में बढ़ोतरी कर अपने नागरिकों को सस्ता एवं स्वच्छ उपचार उपलब्ध करा सके । - लेखक जनता दल ( यू ) के प्रधान महासचिव और पूर्व सांसद हैं 

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