कि सान आंदोलन यकायक ही खड़ा नहीं हो गया । यह दशकों पुराने असंतोष का पका फल है ।

कि सान आंदोलन यकायक ही खड़ा नहीं हो गया । यह दशकों पुराने असंतोष का पका फल है । 

यह सोचना गलत होगा कि केवल कृषि कानून ही इसकी जड़ों में हैं । इसके मूल में तो हरित क्रांति के वे बीज हैं , जिन्होंने किसानों को कृषि की तकनीकों से लेकर बैंकों तक का गुलाम बना डाला है और उससे भी ऊपर , इन विष बीजों ने उस जीवनाधार को ही छिन्न - भिन्न कर दिया है , जिसके सहारे समाज पोषित होता है और जिसके बल पर हम एक सुरक्षित भविष्य के सपने संजोते हैं । एक प्राकृतिक संसाधन , जिस पर हमारी आधुनिक खेती की सबसे अधिक मार पड़ी है , वह है धरती के गर्भ का पानी । अब एक अध्ययन में पाया गया है कि भू - जल के अंधाधुंध दोहन के कारण दुनिया भर में जमीन धंस रही है । यह अध्ययन अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द

आगे है । यह वही कृषि है , जो ऐसे बीजों पर निर्भर है , एडवांसमेंट ऑफ साइंस द्वारा किया गया है । शोध के ये परिणाम दुनिया के संभावित भूमि धंसाव क्षेत्रों में चयनित 7,343 प्रमुख शहरों में से 1,596 शहरों , यानी 22 प्रतिशत सैंपल शहरों के अध्ययन के आधार पर हैं । भू - जल के अत्यधिक दोहन में कृषि सबसे

ज्वार जिनसे अधिकतम उत्पादन लेने के लिए रात - दिन ट्यूबवेल से धरती का पानी उलीचा जाता है । क्षेत्रों भू - जल एक अनमोल प्राकृतिक संसाधन है । वैसे तो पृथ्वी एक जल - ग्रह है , जिसके 70 प्रतिशत भाग पर फसलें जल ही जल है , मगर पीने योग्य पानी कुल जल का मात्रा 2.5 प्रतिशत है , और यही पेयजल फसलों की सिंचाई में काम आता है । आश्चर्यजनक सत्य यह है कि इस सीमित पेय जल का लगभग 72 प्रतिशत तो हमारी आधुनिक कृषि ही पी जाती है - वह कृषि जो हरित क्रांति के आदानों पर अवलंबित है । पानी की कमी स्वयं में एक बहुत बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा है । देश के कई प्रदेश और राजधानी दिल्ली सहित देश के बड़े - बड़े शहर जल संकट से जूझ रहे हैं । जल संकट इतना विकराल है कि निकट भविष्य में खाद्य सुक्षा की गारंटी हो न हो , जल सुरक्षा की तो बिल्कुल नहीं । अर्थात , हरित क्रांति से उपजी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा जल सुरक्षा की कीमत पर है । नीति आयोग के अनुसार शून्य भू - जल स्थिति वाले प्रमुख शहरों की संख्या बढ़ रही है । हमारा सारा खान - पान कृषि से मिलने वाले उत्पादों पर निर्भर है और प्रत्येक उत्पाद की कीमत पानी से चुकानी पड़ती है । गेहूं और धान हमारी दो प्रमुख फसलें हैं , जिनके अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्र आता है । 

एक किलो गेहूं पैदा करने के लिए लगभग 1,500 लीटर और एक किलो चावल पैदा करने में 2,497 लीटर पानी की खपत होती है । एक क्विंटल गन्ना पैदा करने में डेढ़ से तीन लाख लीटर पानी खप जाता है । पानी के लिए सुरसा - सा मुंह खुला रखने वाले बीजों की जगह ऐसे पारंपरिक बीज भी हैं , जिन्हें देश के कई क्षेत्रों में उगाया जाता है , जैसे मंडुआ , झंगोरा , बाजरा , ज्वार जैसे मोटे अनाज और रामदाना ( चौलाई ) जैसी फसलें , जिन्हें बिना सिंचाई के पैदा किया जा सकता है । गेहूं और धान की अनेक ऐसी पारंपरिक प्रजातियां हैं , जिन्हें बारानी भूमि पर उगाया जा सकता है और अनेक जगह ऐसा हो भी रहा है । उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के ऊंचे पहाड़ी बिना सिंचाई की खेती के उदाहरण हैं । कई राज्यों की सरकारें दलहन और तिलहनों की खेती को दे रही हैं , ताकि पानी को बचाया जा सके । मगर हमारी कृषि नीति में भू - जल भंडार के संरक्षण न्यूनतम पानी वाली फसलों और और सूखे में भी पैदावार देने वाले बीजों आदि के बारे में कोई चिंतन नहीं । किसान नेता भी इन मुद्दों को अपने आस - पास नहीं फटकने देते । देश में लगभग आठ करोड़ लोगों को पीने का पानी तक आसानी से सुलभ नहीं हो पाता , तब खेती का मुंह पानी के लिए खोल देना कहां का न्याय है ? हमारे यहां खाद्य सुरक्षा पर तो बहुत व्याख्यान होते हैं , चिंतन होता है और नीतियां बनती हैं , पर जल सुरक्षा पर कम बात होती है । क्या एक संपोषित खाद्य सुरक्षा जल सुरक्षा के बिना संभव है ? 

-पूर्व प्रोफेसर , जीबी पंत कषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय ।

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