यहूदी धर्म मान्यताएँ,येरुशलम

यहूदी धर्म  

मान्यताएँ

यहूदी धर्म के अन्य तत्त्व मोजेज़ के साथ उभरे। इनमें यह मूल मान्यता भी शामिल है कि नैतिक चयन की कुशलता ही मानव जाति को परिभाषित करती है। इसीलिए सभी व्यक्ति ईश्वर के साथ एक प्रतिज्ञा द्वारा जुड़े हैं। यह एक ऐसा संबंध है, जिसे यहूदी उदाहरण और प्रमाण द्वारा सामने रखते हैं। मनुष्य के पास ईश्वर के क़ानून के आज्ञापालन (अच्छाई) और आज्ञा का उल्लंघन (बुराई), दो विकल्प हैं और इसी संदर्भ में वह किसी एक का नैतिक चुनाव करता है। पाप को क़ानून या तोरा का जान-बूझकर किया गया उल्लंघन माना जाता है और तोरा की ओर पुनः वापस जाना एक विमर्शित चयन कहा जाता है। यही नहीं, मनुष्य की नैतिक प्रवृत्ति न्यायपूर्ण समाज की स्थापना तक विस्तृत और उससे गुंथी है। कानान पर विजय को 'पलायन' हेतु ईश्वर के हस्तक्षेप और सहायता के एक अंग के रूप में देखा जाता है। तब फ़िलीस्तीन जैसे नए शत्रु सामने आए और 'न्यायाधीशों की पुस्तक' में उल्लिखित परिवर्तन के दौर की शुरुआत हुई। इज़राइल की 12 बिखरी हुई जनजातियों को बुजुर्गों या मत के दृढ़ समर्थकों के नेतृत्व में एकजुट होने का अवसर मिला। जॉर्डन नदी के दोनों ओर बहुत से पूजा स्थल और वेदियाँ स्थापित की गईं और प्रतिज्ञापत्र की मंजूषा जिसे अक्सर शिलो में ही रखा जाता था, चल वस्तु मानी गई थी।

येरुशलम

न्यायाधीशों के काल के दौरान निरंतर नेतृत्व की आवश्यकता को देखते हुए राजशाही की माँग सामने आई। रुढ़िवादी धार्मिक लोगों के विरोध के बावजूद लगभग 1021 ई. पू. में सॉल को राजा बनाया गया, किंतु 1000 ई. पू में डेविड के शासन काल की शुरुआत तक राजशाही के प्रति धार्मिक आपत्तियाँ होती रहीं। डेविड ने ही येरुशलम पर विजय प्राप्त की और इसे राष्ट्रीय राजधानी बनाया और मंजूषा (आर्क) को यहाँ राष्ट्रीय ईश्वर के देवालय के रूप में लाए। डेविड के पुत्र सॉलोमने पहला मंदिर बनवाया। सॉलोमन द्वारा राजशाही को अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सम्राटशाही में विकसित करने का धार्मिक और लौकिक विरोध हुआ और लगभग 922 ई. पू. में उत्तरी जनजातियों ने संबंध विच्छेद कर लिया।

राजाओं की पुस्तक के अनुसार, अगले 200 वर्ष के दौरान विदेशी संप्रदायों ने यहूदी धर्म पर असर डाला, उत्तरी राज्य (इज़राइल) के विरुद्ध विशेष रूप से आवाज़ उठाई गई। जहाँ येरुशलम की प्रतिद्वंद्विता में धार्मिक राजधानी समदिया स्थापित की गई। जब राजा अहाब ने अपनी सीरियाई पत्नी जेज़ेबल को इज़राइल में अपने विदेशी ईश्वर की पूजा करने की अनुमति दी, तो पैग़ंबर एलिजा ने समूचे उत्तर को अधर्मी घोषित कर दिया। उनका दावा था कि तीन वर्ष का सूखा, ईश्वर के हित में न रहने के पाप का समृद्धि-क्षति के पहले दंड के रूप में था।

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