क्या कला में जीवन दृष्टि नहीं होती
क्या कला में जीवन दृष्टि नहीं होती
पोलक की पली थी और दूसरी थी सोन्जा श्लेजिन जो कि गांधी के साथ उनके लॉ ऑफिस में काम करती थीं । महिलाओं को कमतर और अधीनस्थ के रूप में देखने के आटी गांधी को जब मिली के साथ एक घर में रहने का और सोन्जा के साथ एक ही ऑफिस में काम करने का मौका मिला , तब वह महिलाओं के स्वायत्त , नैतिक और सामाजिक संवाहक रूप से परिचित हो सके । इन्हीं अनुभवों ने 1913 में गांधी द्वारा आयोजित एक बड़े सत्याग्रह में भारतीय महिलाओं ( जिनमें कस्तूरबा भी थी ) की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त किया । भारत लौटने पर गांधी पहले महिलाओं को राष्ट्रवादी राजनीति से दूर रखने के पक्ष में थे , क्योंकि उन्हें भय था कि संकीर्णता में डूबा समाज सार्वजनिक रूप से पुरुषों और महिलाओं के साथ आने का विरोध करेगा ।
यहां भी , दो उल्लेखनीय महिलाओं ने उन्हें कहीं अधिक प्रगतिशील रुख अपनाने के लिए प्रेरित किया । ये थी , सरोजनी नायडू और कमलादेवी चट्टोपाध्याय । नायडू 1925 में ऐसे समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं , जब यूरोप और उतर अमेरिका में राजनीतिक पार्टियों का नेतृत्व किसी महिला के हाथ में नहीं था । चट्टोपाध्याय ने नमक सत्याग्रह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । बाद में , 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सैकड़ों महिला कार्यकर्ताओं ने , जिनमें कई समाजवादी रुझान वाली थी , हड़ताल और प्रदर्शनों का नेतृत्व किया और जेल में भी वक्त बिताया । नस्ल , जाति और लिंग ये सामाजिक भेदभाव के तीन मूलभूत आधार हैं । इसीलिए मैंने इन पर ध्यान केंद्रित किया और इनके संबंध में गांधी के दृष्टिकोण के विकास को समझने की कोशिश की । हालांकि अन्य विषयों पर भी वह निरंतर सीख रहे थे और आगे बढ़ रहे थे । उदाहरण के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रति उनका दृष्टिकोण । 1909 में अपनी किताब हिंद स्वराज में गांधी एक तकनीक विरोधी के रूप में सामने आए । हालांकि बाद के वर्षों में उन्होंने अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाया । दो सर्जनों- एक भारतीय और एक यूरोपीय- द्वारा किए गए सफल ऑपरेशन के बाद आधुनिक चिकित्सा के प्रति उनका नजरिया बदल गया । सी वी रमन जैसे वैज्ञानिकों से मुलाकात ने आधुनिक विज्ञान के तरीकों और प्रक्रियाओं के प्रति उन्हें प्रेरित किया । निश्चित रूप से यह संयोग नहीं है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा का शीर्षक , सत्य के मेरे प्रयोग , रखा । लुईस फिशर ने 1942 में लिखने के दौरान विचार किया कि गांधी के चरित्र में कसौटी की तरह शामिल आत्म निरीक्षण और आत्म आलोचना की क्षमता उनके प्रतिद्वंद्वी और साधी गुजराती मोहम्मद अली जिन्ना में स्पष्ट रूप से नदारद थी । 2021 में यह लिखते हुए मैं कह सकता हूं कि यह क्षमता आज सबसे शक्तिशाली भारतीय और गांधी की तरह गुजराती नरेंद्र मोदी में भी नहीं है । लुईस फिशर ने लिखा , गांधी से साक्षात्कार लेने का आनंद यह था कि उन्होंने सचमुच अपना मन खोल दिया और साक्षात्कारकर्ता को इजाजत दी कि वह देख सके कि मशीन सचमुच कैसे काम करती है । गांधी को पढ़ना , गांधी पर शोध करना , एक ऐसे इंसान का सामना करना है , जिनके अनुयायी और परिपूर्ण होने का दावा करते हैं , यहां तक कि महात्मा भी , लेकिन जो खुद को पतनशील और दोषपूर्ण मानते थे ।
प्रेमचंद की कहानी आत्मसंगीत . विश्व की सर्वोत्तम कहानी है , जो जीवन संगीत सुनने के सहज रास्ते को सहज शैली में कह देती है । निर्मल वर्मा , अज्ञेय , कुंवर नारायण , श्रीकांत वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल के रचना फलक इन जीवन प्रश्नों को गहरी निगाह से परखते हैं । रिल्के अपनी किताब लव पोएम्स टू गॉड में ईश्वर से सीधे संवाद करते हैं । अपनी लंबी कविता आमी में रवींद्रनाथ ने स्पष्ट कहा है कि मेरी ही चेतना के कारण चीजों के रंग वैसे हैं , जैसे दिख रहे । ऐसी स्पष्टता को लेकर ही उनका संवाद आइंस्टीन के साथ हुआ । पर बौद्ध दर्शन या शैव दर्शन एवं विज्ञान के बीच लगातार हो रहे गहरे संवादों में यदि कलादृष्टि या कविदृष्टि अभी तक शामिल नहीं हुई है , तो इसका कारण यह हो सकता है कि या तो कला या कलाकारों की दृष्टि की ओर ध्यान नहीं जा सका है , या फिर अब भी जीवन प्रश्नों की विमर्श दुनिया में कला के महत्व को स्वीकारा नहीं गया है । क्या इसका एक कारण यह है कि कलाकार स्वयं इस संवाद में खुद नहीं आता ? उसे जरूरत नहीं पड़ती कि वह गद्य की शैली में अपनी बात रखे । जबकि हम पाते हैं कि हजारीप्रसाद द्विवेदी से वासुदेवशरण अग्रवाल और विलियम ब्लेक से कोलरिज तक सब ने गद्यात्मक मुद्रा में अपने उत्तर को अंतर्निहित रखा । निर्मल वर्मा और अज्ञेय ने भी कई लेख इसी अभिप्राय से लिखे । वाशो ने तो अल्पाक्षरों से रचित अपनी कविताओं में जीवन का सारांश लिखा । पांच दशक पहले भौतिक विज्ञानी डेविड बॉम ने रेने वेवर के साथ मिलकर जीवन प्रश्नों पर दुनिया के शीर्षस्थ विज्ञानियों और दार्शनिकों से साक्षात्कार लिए थे , जिनमें स्टीफन हॉकिंग , जे कृष्णमूर्ति व लामा अंगारिका गोविंदा भी थे । पर दर्शन और विज्ञान के साथ कला का अनुशासन कभी न जुड़ सका । साहित्य या कला को दूसरे दर्जे में देखने की मानसिकता के कारण जब सार्च को साहित्य में नोबेल पुरस्कार दिया गया , तो उन्होंने यह कहते हुए उसे अस्वीकारा कि वह दार्शनिक हैं , लिहाजा उन्हें दर्शन के क्षेत्र में यह सम्मान दिया जाना चाहिए । नोबेल लेखक अल्वैर कामू ने भी ऐसा ही किया था । हमें आंख खोलकर देखना होगा कि कला दृष्टि की अनदेखी कर हम किस मूल्यवान दृष्टि संपदा की अनदेखी करते चले जा रहे हैं ।
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