काबा
काबा
जैसे उच्च भाव और ईश्वर के प्रति प्रेम नमाज (=नमस्) की उपर्युक्त प्रार्थनाओं में वर्णित है, पाठक उस पर स्वयं विचार कर सकते हैं। सांधिक नमाज़ का इस्लाम में बड़ा मान है। वस्तुतः वह संघशक्ति को बढ़ाने वाला भी है। सहस्रों एशिया, यूरोप और Africa निवासी मुसलमान जिस समय एक ही स्वर, एक ही भाषा और एक भाव से प्रेरित हो ईश्वर के चरणार्विन्द में अपनी भक्ति पुष्पाजंलि अर्पण करने के लिए एकत्र होते हैं, तो कैसा आनन्दमय दृश्य होता है। उस समय की समानता का क्या कहना। एक ही पंक्ति में दरिद्र और बादशाह दोनों खड़े होकर बता देते हैं कि ईश्वर के सामने सब ही बराबर हैं।
इस्लाम के चार धर्म–स्कन्धों में हज' या 'अरब' यात्रा भी एक है। 'काबा' अरब का प्राचीन मन्दिर है। जो मक्काशहर में है। विक्रम की प्रथम शताब्दी के आरम्भ में रोमक इतिहास लेखक 'द्यौद्रस् सलस्' लिखता है—
यहाँ इस देश में एक मन्दिर है, जो अरबों का अत्यन्त पूजनीय है।
महात्मा मुहम्मद के जन्म से प्रायः 600 वर्ष पूर्व ही इस मन्दिर की इतनी ख्याति थी कि 'सिरिया, अराक' आदि प्रदेशों से सहस्रों यात्री प्रतिवर्ष दर्शनार्थ वहाँ पर जाया करते थे। पुराणों में भी शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंग में मक्का के महादेव का नाम आता है। ह. ज्रु ल्–अस्वद् (=कृष्ण पाषाण) इन सब विचारों का केन्द्र प्रतीत होता है। यह काबा दीवार में लगा हुआ है। आज भी उस पर चुम्बा देना प्रत्येक 'हाज़ी' (मक्कायात्री) का कर्तव्य है। यद्यपि क़ुरान में इसका विधान नहीं, किन्तु पुराण के समान माननीय 'हदीस' ग्रन्थों में उसे भूमक नर भगवान का दाहिना हाथ कहा गया है। यही मक्केश्वरनाथ है। जो काबा की सभी मूर्तियों के तोड़े जाने पर भी स्वयं ज्यों का त्यों विद्यमान है। इतना ही नहीं, बल्कि इनका जादू मुसलमानों पर भी चले बिना नहीं रहा और वह पत्थर को बोसा देना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हैं, यद्यपि अन्य स्थानों पर मूर्तिपूजा के घोर विरोधी हैं। इस पवित्र मन्दिर के विषय में क़ुरान में आया है—
निस्सन्देह पहला घर मक्का में स्थापित किया गया, जो कि धन्य है तथा ज्ञानियों के लिए उपदेश है।
महाप्रभु ने मनुष्य के लिए पवित्र गृह 'कअबा' बनाया।
क़ुर्बानी
'क़ुरान' के अनुसार काल तथा अन्य पर्वों में 'हज्ज़' विदित है। इस्लाम की क़ुर्बानी कोई नयी चीज़ नहीं है। इष्टों और देवताओं को पशु का बलिदान करना बहुत पुराने समय से चला आता है। विक्रमपर्व अष्टम शताब्दी में, 'तिग्लतपेशर्' और 'शल्मेशर', 'असुर' राजाओं के इष्ट 'सक्कथ–वेनथ' बवेरु (बाबुल) नगर के विशाल मन्दिर में बैठे बलि ग्रहण करते थे। 'नर्गल', 'अशिम', 'निमज', 'तर्तक', 'अद्रम्लेश', 'अम्लेश', 'नाशरश', 'देगन' आदि देव–समुदाय विक्रम से अनेक शताब्दियाँ पूर्व आधुनिक लघु एशिया के पुराने नगरों 'कथ', 'ड्रामा', 'अलित', 'सफर्वेम' में रहते हुए बलि ग्रहण करते थे। मूर्ति पूजक समुदाय तो प्रायः सारा हि इस पशुबलि–क्रिया में अत्यन्त श्रृद्धालु देखा जाता है। किन्तु अमूर्ति पूजक धर्म भी इससे विंचित नहीं रहा। यहूदियों की भव्य वेदियाँ सदा पशु–रक्त से रंजित रहती रही हैं। उनकी शुष्क और दग्ध बलियाँ 'बाइबिल' पढ़ने वालों को अविदित नहीं। इस्लाम ने अधिकांश यहूदी सिद्धान्तों को ज्यों का त्यों या कुछ परिवर्तन के साथ ग्रहण कर लिया। बलि का सिद्धान्त भी उसी प्रकार यहूदी धर्म से लिया गया है। यहाँ पर दोनों की बलि के विषय में समता दिखाने के लिए 'तौरेत' और 'क़ुरान' दोनों से कुछ वाक्य उदधृत किए जाते हैं—
“That will offer his oblation for all his vows or for all his freewill offerings, which they will offer unto the lord for a burnt offering. Ye shall offer at your own will a male without blemish, of the beeves, of the sheep, or of the goats. Blind or broken or maimed, or having a wen, scurvy or scubbed, ye shall not offer these unto the lord, nor make an offering by fire of them upon the altar unto the lord…Ye shall not offer unto the lord, that which is bruised, or crushed, or broken or cut”
"जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि परमेश्वर तुमको आज्ञा देता है कि एक गौ बलि चढ़ाओ...(वह) बोले—अपने ईश्वर से हमारे लिए पूछ कि हमें बतावे—वह कैसी हो। कहा—(ईश्वर) आज्ञा देता है कि वह गौ न वृद्धा और न ही ब्याई हो, दोनों के बीच की हो। सो जिसके लिए आज्ञा दी गई, उसके करो। बोले—अपने ईश्वर से पूछ, उसका रंग कैसा हो। बोला—वह (ईश्वर) कहता है, पीला चमकीला रंग जो देखने वाले को पसन्द हो। बोले—अपने ईश्वर से पूछ, किस प्रकार की गाय हो। बोला—कहता है, ऐसी गौ नहीं, जो कि परिश्रम करने वाली, खेत जोतती या खेत सींचती है। जो पूरे अंग वाली बेदाग़ हों।"
पर्दा
पहले वाक्य में तो चादर ढाँकने का अभिप्राय मुसलमान जानी जाने, तथा न सतायी जाने के लिए कहा गया है। दूसरे वाक्य में भी सौन्दर्य को दिखाने से रोकने का अभिप्राय बोराबन्दी लेना अन्याय है। स्पष्ट अर्थ तो यह है कि जैसे पाश्चात्य स्त्री समाज में सौन्दर्य दिखलाने का रोग यहाँ तक लग गया है कि जाड़े–पाले में भी, आधा वक्षस्थल नंगा ही रखती हैं। कहीं वही बात स्त्रियों में न घुसने लगे। दरअसल इस प्रकार की बीमारी स्त्री–पुरुष दोनों समाजों में भी किसी प्रकार से आना ठीक नहीं है। कहावत है कि 'शैतान भी अपने मतलब को सिद्ध करने के लिए शास्त्र की दुहाई देता है', उसी प्रकार यह मुसलमान पतियों का सरासर अन्याय है, जो कि क़ुरान में लिखे पर्दा ही पर सन्तोष न कर उन्होंने स्त्रियों को सात संगीन पर्दे में बंद रखा है। क़ुरान ने तो विशेष श्रृगार आदि के न दिखाई देने के लिए कुछ विशेष अंगों को ढाँकने के लिए कहा, किन्तु यहाँ लोगों ने सारे बदन को ही ढाँकने पर बस न की, ऊपर से सात तालों के अन्दर भी उन्हें बन्द करना उचित समझा। यह केवल मुसलमान पुरुषों की ही बात नहीं, सच कहते हैं 'गुरु तो गुरु ही रह गए, चेला चीनी हो गया।' हिन्दुओं के पुरुषों ने कभी न सुना होगा कि पर्दाा प्रथ किस चिड़िया का नाम है। आज भी महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्रर प्रदेश, मालाबार इत्यादि आधे से अधिक भारतवर्ष के हिन्दू पर्दा को नहीं जानते। किन्तु जिस प्रकार आज अंग्रेज़ी राज्य में बहुत से अंग्रेज़ों का खान–पान, रहन–सहन गौरवपूर्ण समझ हिन्दुओं ने मुसलमानों की इस रीति को अपनाकर उसने और तरक़्क़ी की। पहले–पहल इन रीतियों को धनिकों और बड़े आदमी कहे जाने वाले लोगों ने लिया, पीछे बड़े आदमी बनने की इच्छा वाले सभी लोगों ने अपनी स्त्रियों पर इस नये दण्ड–विधान का प्रयोग आरम्भ कर दिया। शरीर में कोमलता की वृद्धि के लिए राजदाराओं को 'असूर्यपश्या' तो देखा गया है, किन्तु 'अचन्द्रपश्या' होने का सौभाग्य आज ही प्राप्त हुआ है। 'इहैवास्तं मा वियौष्ठम्' (दोनों यहाँ ही रहो, मत अलग हो) इस विवाह–सम्बन्धी वेदमंत्र में स्पष्ट विवाहित जोड़े को अलग होने का निषेध किया है। इस प्रकार अर्थ (हिन्दू) धर्म विवाह सम्बन्ध को अखंडनीय मानता है। किन्तु कई धर्म विशेष स्थिति में विवाह सम्बन्ध त्याग या 'तलाक़' की अनुमति देते हैं। क़ुरान कहता है— जो अपनी स्त्रियों से (तलाक़ की) शपथ खा लेते हैं, उनके लिए चार मास की अवधि है। (इसी बीच में) यदि मेल कर लें तो ईश्वर क्षमाशील और कृपालु है। यदि 'तलाक़' का निश्चय कर लिया, तो भगवान (उसका) सुनने वाला और जानने वाला है। 'तलाक़' दी गई स्त्रियाँ तीन ऋतुकाल तक प्रतीक्षा करें; उनके योग्य नहीं की जो ईश्वर ने उनके उदर में उत्पन्न किया, उसे छिपा रखें....उनके पतियों को भी इतने दिन तक उन्हें फिर से ले लेने का अधिकार है, यदि सुधार चाहें। स्त्रियों को भी न्यायनुसार वैसा अधिकार है, किन्तु पुरुषों का उन पर दर्जा है।
यद्यपि यहाँ पर कुछ शर्तों के साथ तलाक़ की अनुमति दे दी गई है। किन्तु तो भी इसे अच्छा नहीं माना गया है। यह महात्मा मुहम्मद के इस वचन से भी प्रकट होता है
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