रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को ' महामानवसमुद्र ' कहा है
रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को ' महामानवसमुद्र ' कहा है ।
विचित्र देश है यह । असुर आए , आर्य आए . शक आए . हुण आए . नाग आए , यक्ष आए , गंधर्व आए न जाने कितनी मानव जातियां यहां आई और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गई । जिसे हम हिंदू रीति - नीति कहते हैं , वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है । एक एक पशु , एक एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है । अशोक के फूल की भी अपनी स्मृति परंपरा है । आम की भी है , बकुल की भी है , चंपे की भी है । सब क्या हमें मालूम है ? जितना मालूम है , उतने का अर्थ क्या स्पष्ट हो सका है ? मुझे मानव जाति की दुर्दुम - निर्मम धारा के हजारों वर्ष का रूप साफ दिखाई दे रहा है । मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है । वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है । न जाने कितने धर्माचारों , विश्वासों , उत्सवों और व्रतों को धोती बहाती यह जीवन धारा आगे बढ़ी है । संघर्षों ने मनुष्य ने नई शक्ति पाई है । हमारे सामने समाज का आज जो रूप है , वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है । देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल वाद की बात है । सब कुछ में मिलावट है , सब कुछ अविशुद्ध है । शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा । वह गंगा की अबाधित अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है । सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण भर बाधा उपस्थित करता है । धर्माचार का संसार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है , पर इस दुर्दम धारा में सब कुछ वह जाते हैं । जितना कुछ इस जीवनी शक्ति को समर्थ बनाता है , उतना उसका अंग जाता है , वाकी फेंक दिया जाता है । अशोक का वृक्ष जितना भी मनोहर हो , जितना भी रहस्यमय हो , जितना भी अलंकारमय हो , परंतु है वह उस विशाल सामंत सभ्यता की परिष्कृत रुचि का प्रतीक , जो साधारण प्रजा के परिश्रम पर पली थी । वे सामंत उखड़ गए , समाज ढह गए और मदनोत्सव की धूमधाम भी मिट गई । संतान कामिनियों को गंधों से अधिक शक्तिशाली देवताओं का वरदान मिलने लगा । पीरों ने , भूत - भैरवों ने , काली - दुर्गा ने यक्षों की इज्जत घटा दी । दुनिया अपने रास्ते चली गई । अशोक पीछे छूट गया ।
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