मुनाफ़िक काफ़िर, काफ़िरों की उक्तियाँ

इस्लाम धर्म  

मुनाफ़िक

मदीना आने पर जिन मूर्तिपूजकों ने इस्लाम-धर्म स्वीकार किया, उन्हें ‘अंसार’ कहा जाता है; इनमें बहुत से वंचक मुसलमान भी थे जिन्हें ‘मुनाफ़िक’ का नाम दिया गया है। इन्हीं के विषय में कहा गया है- ‘हम निर्णय-दिन (कयामत) और भगवान पर विश्वास रखते हैं; ऐसा कहते हुए भी वह विश्वासी (मुसलमान) नहीं हैं। परमेश्वर और मुसलमानों को ठगते हुए वह अपने ही को ठगते हैं।

विश्वासियों (मुसलमानों) के पास जब गये, तो कहा हम विश्वास रखते हैं; राक्षसों (नास्तिकों) के पास निकल जाते हैं तो कहते हैं-(मुसलमानों से) हँसी करते हैं, अन्यथा हम तो तुम्हारे साथ हैं। “वह दोनों के बीच लटकते हैं, न इधर हैं, न उधर के।“ इसीलिए मरने पर- “निस्सहाय होकर (वह) नरक की अग्नि के सबसे निचले तल में रहेंगे।“का

काफ़िर


उस समय ‘अरब’ में मूर्तिपूजा का बहुत अधिक प्रचार था। क़ुरान में सबसे अधिक ज़ोर से इसी का खण्डन किया गया है। महात्मा मुहम्मद ने जब यह सुना कि ‘काबा’ मन्दिर के निर्माता हमारे पूर्वज महात्मा ‘इब्राहीम’ थे, जो मूर्तिपूजक नहीं थे, तो उन्हें इस अपने काम में और बल-सा प्राप्त हुआ मालूम होने लगा। उनकी यह इच्छा अत्यन्त बलवती हो गई कि कब ‘काबा’ फिर मूर्तिरहित होगा। उन्होंने सच्चे देवता की पूजा का प्रचार और झूठे देवता की पूजा का खण्डन अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य रखकर बराबर अपने काम को जारी रखा। ‘अरब’ की काशी ‘मक्का में ‘कुरैशी’ पण्डों का बड़ा ज़ोर था। यह लोग अपने अनुयायियों को कहते थे- ‘वद्द’, ‘सुबाअ’, ‘यगूस’, ‘नस्र’ अपने इष्टों को कभी न छोड़ना चाहिये।‘क़ुरान’ के उपदेश को वह लोग कहते थे- यह इस मुहम्मद की मन-गढ़न्त है।‘इसको कोई विदेशी सिखाता है।... हम अच्छी तरह जानते हैं, उस सिखाने वाले की भाषा अरबी से भिन्न है और यह अरबी।‘ वह लोग विश्वास के रसूल होने के बारे में कहते थे- वह लोग विश्वास नहीं करते जब तक वह भूमि से (जल का) सोता न निकाल दे या खजूर अंगूर आदि का (ऐसा) बगीचा न उत्पन्न कर दे जिसमें कि नहर बहती हो। अथवा अपने कहे अनुसार आकाश को टुकड़े-टुकड़े करके हमारे ऊपर न गिरा दे। या देवदूतों को प्रतिभू (जामिन) के तौर पर न लावे। या अच्छा महल (इसके लिए) हो जाय। अथवा आकाश पर चढ़ जाय। किन्तु उसके चढ़ने पर भी हम विश्वास नहीं करेंगे जब तक हम लोगों के पढ़ने लायक़ कोई लेख न लाये।“

काफ़िरों की उक्तियाँ

क़ुरान में पुराने वसूलों के लिए अनेक चमत्कार लिखे है। जैसे महात्मा मूसा ने पत्थर से बारह जल-स्रोत बहा दिये, अपने आथियों को अवर्गीय भोजन, ‘मन्न’ और ‘सलवा’ दिया करते थे। इब्राहीम के पास तो खुदा बराबर ही आया करते थे। महात्मा ईसा आकाश पर चढ़ गये इत्यादि इन बातों ही को वह लोग भी कहते थे कि यदि तुम प्रभु-प्रेरित हो तो क्यों उसी प्रकार के चमत्कार नहीं दिखाते? और भी अनेक प्रकार से वह लोग हँसी उड़ाते थे। नीचे कुछ और अद्धरण उनके व्यवहारों का दिया जाता है-

“भोजन करता है, बाज़ार में घूमता है, यह कैसा रसूल (प्रभु-प्रेरित) है? क्यों नहीं इसके पास देवदूत आता जो इसके साथ (हमें) डराता? क्यों नहीं इसके पास कोष (ख़ाज़ाना) और बाग़ हुआ, जिसका यह उपभोग करता?”
“क्या हम किसी पागल, दरिद्र, तुकबन्द (कवि) की बात में पड़कर अपने इष्टों को फेंक दें?”

उस समय पश्चिमी अरब ‘हिज़ाज’ में दो बड़े-बड़े सर्दार थे ; एक मक्का के ‘क़ुरैश’ वंश का सर्दार, दूसरा ‘तायफ़’ का सामन्त। महात्मा क़ुरैश वंश के हाशिम-परिवार के थे। यह लोग उतने धनी-मानी न थे। क़ुरैश मूर्तिपूजक कहते थे।


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