यहूदी

यहूदी

यहूदी धर्म के महात्मा, इब्राहीम इशाक़, दाऊद, सुलेमान के भी माननीय महात्मा और रसूल है। अपने वंश के प्रति बड़े अभिमानी यहूदी लोग महात्मा के मदीना (यस्रिब्) आने पर पहले कुछ समय तक तो मुसलमानों के विरोधी न थे, परन्तु जब उन्होंने देखा कि हमारी प्रधानता अब घट रही है और मुहम्मद का प्रभाव अधिक बढ़ता जा रहा है, तो वह भी द्रोही हो गये। इस्लाम की शिक्षा का बहुत-सा भाग यहूदी और ईसाई धर्मों से लिया गया है। दोनों धर्मों के प्रति आरम्भ ही से महात्मा की बड़ी श्रद्धा थी। यहाँ तक कि ‘नमाज़’ भी पहले मुसलमान लोग उन्हीं पवित्र स्थान ‘योरुशिलम्’ की ओर मुँह करके पढ़ते आ रहे थे। जब यहूदियों ने शत्रुता करनी शुरू की तो महात्मा मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को ‘योरुशिलम्’ से मुँह हटाकर ‘काबा’ को अपना ‘किब्ला’ (सम्मुख का स्थान) बनाने की आज्ञा दी। यहूदियों के व्यवहार के विषय में कहा गया है-

‘यहुदियों में कुछ लोग ईश्वर-वाक्य (कुरान) को सुनते हैं। फिर जो कुछ उन्होंने जाना था, उसे बदल देते है और इसे वह जानते हैं।‘
‘यहूदी वाक्य को उसके स्थान से बदल देते है’।

महात्मा और उनके अनुयायियों का विश्वास था कि यहूदी लोगों के ग्रंथों में में मोहम्मद के रसूल (प्रेरित) होकर आने की भविष्यवाणी है; किन्तु वह लोग इसे बदलकर दूसरा ही कह देते है जिसमें कि कहीं इस्लाम को इससे दृढ़ होने में सहायता न मिल जाय। ऊपर उद्धृत दूसरे वाक्य में इसी बात की ओर संकेत है। इसके अतिरिक्त अन्य आक्षेप भी यहूदियों पर पाये जाते है; जैसे-

‘कुछ धन मिलने के लिये अपने हाथ से पुस्तक लिखकर यह कहने वालों को धिक्कार है कि वह ईश्वर की ओर से है।‘
‘कोई-कोई यहूदी चाहते है कि तुम्हें (मुसलमानों को) पथ-भ्रष्ट कर दें, किन्तु तुम्हें मालूम नहीं कि वे अपने सिवाय दूसरे को (ऐसा) नहीं कर सकते। है ग्रन्थ वालो ! तुम लोग साक्षी हो, फिर क्यों नहीं ईश्वर के वचनों (क़ुरान) पर विश्वास करते? हे ग्रन्थ वालो ! जानते हुए भी तुम क्यों सत्य को असत्य से ढाँककर छिपाना चाहते हो?

क़ुरान और यहूदियों के धर्म में बहुत समानता और मुर्ति-पूजकों के सिद्धान्त से घोर विरोध है; तो भी द्वेष के मारे यहूदी लोग मुसलमानों से मूर्तिपूजकों को भी अच्छा बतलाते थे: यथा- ‘विश्वासियों (मुसलमानों) से यह (नास्तिक) ही अधिक सुमार्ग पर आरूढ़ हैं; इस प्रकार नास्तिकों (क़ाफिरों) को कहने वाले मूर्ति और शैतान के विश्वासी ग्रन्थ के कुछ अंश पाने वालों को तू (मुहम्मद) नहीं देखता?’

महात्मा तो यहूदियों को आस्तिक समझ केवल मुसलमानों के लिए ही प्रयुक्त होने वाले ‘अस्सलामु अलैकुम् (तुम्हारा मंगल हो) वाक्य को कहकर प्रणाम करते थे; किन्तु डाह के मारे यहूदी उसके उत्तर में ‘अस्सलामु अलैकुम्’ व ‘अलैकुमु-स्सामु’ (=और तुम पर मृत्यु हो) कहा करते थे।

यहूदियों के धर्मग्रन्थों को क़ुरान ने भी ईश्वरीय माना था। इस विश्वास से लाभ उठाकर वह मुसलमानों को धोखा देते थे।

“जिसमें तुम समझों कि यह ईश्वरीय पुस्तक है, इसलिये उनमें से कितने जीभ लौटाकर पढ़ते हैं और कहते है कि यह ईश्वर की ओर से है ; किन्तु न वह ईश्वर की ओर से है, न उस ग्रन्थ में से। जान-बूझ कर ईश्वर पर वह मिथ्यारोपण करते है।“

जब यहूदियों से कहा जाता है कि जिस प्रकार तुम लोग इब्राहीम, मूसा आदि महात्माओं को ईश्वर-प्रेरित समझते हो, उसी प्रकार महात्मा मुहम्मद को भी क्यों नहीं समझते? तब वे लोग कहते थे-

ईश्वर ने हमसे प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोई ऐसी बलि के साथ न आये, जिसे अग्नि (स्वयं) खाये ; तब तक किसी पर तुम लोग विश्वास न करना कि यह ईश्वर-प्रेसित है।‘

जिसके उत्तर में फिर वहीं कहा गया है-

‘कह, मुझसे पहले कितने प्रेरित चिन्हों के साथ तुम लोग में आये। यहि तुम सत्यवादी हो, तो (तुमने) क्यों उन्हें मारा?’

शत्रुता हो जाने पर यहूदियों के चर महात्मा के पास आ-आ कर उनकी शिक्षा और अन्य वृत्तान्तों का पता लगा अपने सर्दारों को खबर देते थे। वहाँ से यह खबर ‘मक्का’ वाले शत्रुओं को दे दी जाया करती थी। इन्हीं चर के विषय में यह वाक्य है-

‘पास में आये भक्ष्य अभोजी, उन झूठे दूतों को आज्ञा दे (कि न आवें) अथवा उपेक्षित कर दे। यदि उपेक्षा करे तो तेरी हानि नहीं कर सकते।‘

लड़कपन में एक बार ईसाई संन्यासी ‘बहेरा’ से महात्मा मुहम्मद की मुलाकात का ज़िक्र पहले आ चुका है। यौवनावस्था में भी उन्हें एक बार उस महापुरुष के सत्संग से लाभ उठाने का अवसर फिर प्राप्त हुआ। ऐसे ही तेजस्वी, सदाचारी महात्माओं के परिचय ने उनके हृदय से ईसाई-धर्म और उनके अनुयायियों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर दी। क़ुरान में कहा है-

‘यहूदियों’ और ‘काफ़िरों’ (नास्तिकों) में तू बहूत से क्रू र और डाहवाले आदमियों को पायेगा ; किन्तु जो अपने को ईसाई कहते हैं, उनमें से बहुतों को तू सौहार्द्र और समीपता से युक्त पायेगा ; क्योंकि उनमें निरभिमानी विद्वान् संन्यासी है।

ईसाइयों से यों भी कोई आर्थिक चढ़ा-उतरी न थी जिससे कि उनका मुसलमानों के साथ विरोध होता। यद्यपि ईसाइयों की प्रशंसा इस प्रकार लिखी गई है ; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उनके सिद्धान्तों का खण्डन क़ुरान में नहीं किया गया है। ईसाई-धर्म में ईश्वर तीन रूप में विद्यमान माना जाता है-

  1. पिता-जो स्वर्ग में रहता है
  2. पुत्र-प्रभु ईशु ख्रीष्ट जिन्होंने संसार के हितार्थ कुमारी मरियम के गर्भ से संसार में अवतार लिया और अज्ञानियों तथा अन्यायियों ने उन्हें सूली पए चढ़ा दिया
  3. पवित्रात्मा-जो भक्तजनों के हृदय में प्रवेश कर उनके मुख या शरीर द्वारा त्रिकाल का ज्ञान या अन्य धर्मिक रहस्यों को खोलता है।

इस विषय में क़ुरान का कहना है-

“ईश्वर तीनों में से एक है, ऐसा कहने वाले ज़रूर नास्तिक हैं। भगवान् एक है। उस एक के अतिरिक्त और नही।“ (6:10:7)

“मरियम-पुत्र यीशु पहले प्रेरितों की भाँति एक प्रेरित था, दूसरा नहीं ; और उसकी माता एक सती, स्त्री थी। दोनों आहार भक्षण करते थे। देखो युक्तियों को कैसे में (ईश्वर) वर्णन करता हूँ, किन्तु वह (ईश्वर) विमुख है।“

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