किसने की थी डार्विन की मदद?
किसने की थी डार्विन की मदद?
चार्ल्स डार्विन को हम एक महान वैज्ञानिक के तौर पर जानते हैं, जिन्होंने ज़िंदगी के विकास के सिद्धांत की खोज की।
उन्होंने ब्रिटिश जहाज़ एचएमएस बीगल से दक्षिणी अमेरिका के गैलेपैगोस द्वीप का सफ़र किया था। वहां के अजीबोग़रीब जानवरों को देखने से ही उनके विकास के सिद्धांत की शुरुआत हुई।
मगर, हाल ही में कुछ ऐसे दस्तावेज़ सामने आए हैं जिनसे पता चलता है कि डार्विन ने सिर्फ़ जानवरों को देखकर ही नहीं, विज्ञान की अपनी कई थ्योरीज़ के लिए अपने बच्चों का भी इस्तेमाल किया था।
डार्विन और उनके बच्चों की कई चिट्ठियां सामने आई हैं, जिनसे ये चौंकाने वाली जानकारी मिली है। साथ ही डार्विन की नोटबुक से भी ये राज़ खुला है।
जब डार्विन के बेटे विलियम पैदा हुए तो उन्होंने अपने बेटे की हर हरकत को नोट करना शुरू कर दिया था। आज डार्विन की नोटबुक पढ़िए, तो उनके बेटे के बारे में डार्विन के नोट्स बेहद चौंकानेवाले लगते हैं।
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में रखी डार्विन की नोटबुक उनकी निजी ज़िंदगी में विज्ञान के दखल का दस्तावेज़ी सबूत है।
डार्विन अपने बेटे के बारे में लिखते हैं...'पहले हफ़्ते में उसने जम्हाई ली। किसी बुजुर्ग की तरह हाथ-पांव मारे, हिचकी ली, छींका और चूसा...'
आज हम डार्विन के सिद्धांतों के बारे में अच्छे से जानते हैं। मगर उनकी निजी ज़िंदगी के बारे में बहुत कम जानकारी है। और ये तो और भी कम पता है कि किस तरह उनके परिवार ने उनके सिद्धांतों की खोज में मदद की।
लेकिन अब उनकी तमाम चिट्ठियां और डायरी के पन्ने, इस राज़ पर से भी पर्दा उठा रहे हैं। अब धीरे-धीरे, डार्विन की पारिवारिक ज़िंदगी की पहेली भी सुलझ रही है। ख़ास बात ये कि उनके बड़े होते बच्चों की ज़िंदगी ने भी उन्हें इंसान के विकास को समझने में मदद की।
डार्विन का बेटा विलियम लंदन के चिड़ियाघर में ओरांगउटान जेनी से उनकी मुलाक़ात के एक साल बाद पैदा हुआ था।
सिंगापुर नेशनल यूनिवर्सिटी के जॉन वान व्हे कहते हैं कि जेनी के ज़रिए डार्विन ने धरती पर इंसान के विकास को समझने की कोशिश की थी।
जिस वक़्त वो जेनी से मिले वो, इंसान के विकास के बारे में सोच-विचार कर रहे थे। तमाम थ्योरीज़ पर काम कर रहे थे। लेकिन, जेनी से पहले वो इंसान के किसी क़रीबी रिश्तेदार से नहीं मिले थे। जेनी को देखकर उन्हें ये समझने में आसानी हुई कि इंसान के पुरखे बंदर थे।
व्हे कहते हैं कि जब डार्विन जेनी से मिले तो उनके दिमाग़ में ये बात चल रही थी कि इंसानों का बंदरों से ज़रूर कोई न कोई नाता है। जब उन्होंने जेनी की हरकतों, उसके हाव-भाव पर ग़ौर किया तो उन्हें अपनी ये बात सच लगी।
डार्विन ने इस बात का ज़िक्र अपनी बहन सूसन को लिखी चिट्ठी में किया है। वो लिखते हैं।।।''चिड़ियाघर के कर्मचारी ने उसे एक सेब दिखाया, मगर उसे दिया नहीं। इस बात से वो नाराज़ हो गई, हाथ-पांव पटककर अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर किया और फिर रोने लगी। ठीक वैसे ही, जैसे कोई नटखट बच्चा रोता है।''
जेनी से मुलाक़ात के बाद जब डार्विन का अपना बेटा पैदा हुआ तो उनको उसकी हरकतों में इंसान और बंदरों के बच्चों के बीच समानताएं खोजने का मौक़ा मिल गया।
यूं तो बहुत से मां-बाप अपने बच्चों के बारे में नोटबुक बनाते हैं। मगर, डार्विन तो जैसे विज्ञान की कोई किताब लिख रहे हों, ऐसा उन्होंने अपने बेटे के बारे में लिखा।
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में डार्विन करेस्पॉन्डेंस प्रोजेक्ट की एलिसन पियर्न कहती हैं कि अपने बेटे के बारे में डार्विन के नोट्स देखकर लगता है कि जैसे वो किसी रिसर्च के बारे में लिख रहे हों।
अपने बेटे और ओरांगउटान जेनी के बारे में उनकी पड़ताल, 1871 में आई उनकी किताब ''द डीसेंट ऑफ मैन'' के तौर पर सामने आई।
फिर 1872 में उनकी अगली किताब, ''द एक्सप्रेशंस ऑफ द इमोशंस इन मैन एंड एनिमल्स'' में भी इस तजुर्बे के हवाले से काफ़ी कुछ लिखा गया।
डार्विन के नोट्स में एक जगह इस बात का ज़िक्र मिलता है कि कैसे उन्होंने आवाज़ें निकालकर अपने बेटे को डराया।
''मैंने खर्राटों की ज़ोरदार आवाज़ निकाली तो वो डर गया और अचानक रोने लगा... मैंने ये प्रयोग एक बार फिर दोहराया''
बाद में अपनी किताब, 'इमोशंस' में डार्विन ने किसी आवाज़ को सुनकर इंसान के बर्ताव के बारे में लिखा। उन्होंने इस बात को अपने बच्चों पर भी आज़माया, एक डिब्बे को बजाकर।
उन्होंने लिखा है...'अचानक तेज़ आवाज़ सुनकर मेरे पंद्रह दिनों से कम उम्र के बच्चे चौंक गए'। बाद में उन्होंने बंदरों पर भी ये बात आज़माई और पाया कि इंसानों की तरह बंदरों के बच्चे भी डर को आसानी से ज़ाहिर कर पाते हैं। जैसे ओरांगउटान, कछुओं को देखकर घबरा जाते हैं।
सिर्फ़ डर को नहीं, डार्विन ने ख़ुशी के भाव भी नोट किए, अपने बच्चों और ओरांगउटान के बर्ताव में। जब उनका बेटा विलियम पहली दफ़ा मुस्कुराया तो उन्होने लिखा, 'जब पांच हफ़्ते की उम्र में वो मुस्कुराया तो लगा कि वो बस यूं ही था। लेकिन छह हफ़्ते की उम्र में उसकी ख़ुशी आंख में देखी जा सकती थी'।
डार्विन ने यही बात बंदरों के बारे में भी नोटिस की। उन्होंने लिखा कि, 'ख़ुशी में उनकी आंखें बड़ी और चमकीली दिखाई देती हैं'। जब ओरांगउटान के बच्चे मुस्कुराते हैं तो वो इंसानों के बच्चों जैसे ही दिखते हैं।
2015 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में डार्विन के कई बहुत पुराने नोट्स मिले। ये नोट्स जॉन वान व्हे और डेनमार्क के नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम के पीटर केरग्राड ने मिलकर खोजा। डार्विन के ये नोट्स दो पन्नों में थे। इनका मजमून था, 'मैन'। दिलचस्प बात ये थी कि इसमें इंसानों का ज़िक्र नाम मात्र को ही था।
इन पन्नों में जेनी के हवाले से बंदरों और इंसानों के भावों के बारे में लिखा था। डार्विन ने नोट किया था कि अगर जेनी की तरफ़ से ध्यान हटा लो तो वो बुरी तरह जल-भुन जाती थी। वो कई बार ख़ुद को रुमाल से ढंक लेती थी, जैसे कोई बच्ची ख़ुद को शॉल में लपेट लेती हो। डार्विन ने लिखा कि ओरांगउटान को लड़कों को नहाते देखना अच्छा लगता था। भाव कुछ ऐसे होते थे कि जैसे कोई बच्चा बहुत नाराज़ हो।
डार्विन ने ये बात भी नोट की थी कि ओरांगउटान, आईने में ख़ुद को देखकर पहचान लेते थे। यूं तो विज्ञान का ''मिरर टेस्ट'' 1970 के दशक में शुरू हुआ था। मगर डेढ़ सौ बरस पहले डार्विन इस तरह का प्रयोग कर चुके थे।
उन्होंने देखा था कि जेनी और एक दूसरा ओरांगउटान अक्सर आईने के सामने खड़े होकर मुंह बनाते थे। जैसे वो ख़ुद को ही चिढ़ा रहे हों। वो दोनों आईने को देखकर हैरान नज़र आते थे। बार-बार हर एंगल से ख़ुद को देखते थे, आईने में।
इस पहेली को समझने के लिए बाद में उन्होंने अपने बेटे के आईने के सामने खड़ा करके उसके हाव-भाव नोट किए।
डार्विन ने लिखा है कि, ''तीन-चार दिन पहले वो ख़ुद को आईने में देखकर मुस्कुराया। आख़िर उसे कैसे पता है कि सामने दिख रहा शख़्स वही है। वो इसी बात पर मुस्कुराता है, ये बात मुझे पक्के तौर पर सही लगती है''।
डार्विन की पत्नी एमा ने जब उनके साथ ज़िंदगी बिताने का फ़ैसला किया, तो उन्हें भी पता था कि एक वैज्ञानिक के साथ रहने का मतलब है कि ख़ुद को उसके नुस्खों के आज़माए जाने के लिए तैयार रखना।
डार्विन को जनवरी 1839 में लिखे ख़त में एमा ने लिखा कि, ''तुम्हारी बातों से लगता है कि तुम मुझे भी एक नस्ल के नमूने के तौर पर ही देखोगे, अपनी पत्नी के तौर पर नहीं। अपने सिद्धातों को पुख़्ता करने के लिए तुम उन्हें मुझ पर भी आज़माओगे। अगर मैं नाराज़ हुई तो भी तुम यही सोचोगे कि आख़िर इससे क्या बात साबित होती है''।
बाद में डार्विन के बच्चे भी उनके प्रयोग के नमूनों के बजाय उनके सहयोगी बन गए।
हाल ही में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी ने ऐसे 112 ख़तों को अपने पास सहेजकर रखा है जो डार्विन की बेटी हेनरिटा और बेटे विलियम ने लिखे थे। इन ख़तों से पता चलता है कि कैसे डार्विन के बच्चों ने उनके रिसर्च में मदद की।
एक ख़त में विलियम, अपनी बहन हेनरिटा से एक ख़ास तरह की मक्खी देखने का ज़िक्र करते हैं। इस तजुर्बे को उन्होंने अपने पिता से भी साझा किया।
वैसे, डार्विन की बेटी हेनरिटा ने और भी अहम रोल निभाया। वो सिर्फ़ सहयोगी नहीं थीं। उन्होंने डार्विन के तमाम लेखों के एडिटर का भी रोल निभाया। एक बार जब वो यूरोप में छुट्टियां बिता रही थीं, तो डार्विन ने हेनरिटा से गुज़ारिश की कि वो उनकी किताब 'डिसेंट ऑफ मैन' की पांडुलिपि को फिर से पढ़ें, उसमें ज़रूरी हेर-फेर करें, ताकि उसे छपने को दिया जा सके।
दिलचस्प बात ये है कि डार्विन के परिवार में सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई की बातें नहीं होती थीं। वो ख़ूब मौज मस्ती करते थे। सच तो ये है कि डार्विन को वैज्ञानिक माना ही नहीं गया, न उन्हें इसके लिए कोई पैसे मिले। परिवार की दौलत से उनका काम चलता था। जिसकी वजह से वो बेफ़िक्र होकर, अपने सिद्धांतों को लेकर काम कर सके। वैसे परिवार के साथ वक़्त बिताते हुए भी डार्विन हर चीज़ में, हर बात में अपने सिद्धांतों, अपने विचारों के लिए मसाला खोजते थे।
डार्विन परिवार ने मुर्गे, कबूतर और ख़रगोश पाल रखे थे। उनके बगीचे में कई तरह के पेड़ पौधे थे। इनमें से कई पौधे मांसाहारी भी थे। डार्विन इन पौधों को कभी उबले अंडों, तो कभी, मांस के टुकड़े और कभी जैतून के तेल की ख़ुराक देते थे।
डार्विन के विचारों की विज्ञान पर आज भी गहरी छाप है। वो सोते-जागते, हमेशा सिर्फ़ विज्ञान और विकास के विचारों के बारे में सोचते थे। उन्होंने ख़ुद की कामयाबी की भी ईमानदारी से पड़ताल की।
डार्विन ने अपने सिद्धांत आज से डेढ़ सौ साल पहले छापने शुरू किये थे। आज हमें पता है कि उनके विचार कितने सटीक थे। जबकि न तो उस वक़्त विज्ञान ने इतनी तरक़्क़ी की थी और न ही इंसानों के कंकाल उस वक़्त ज़्यादा मिले थे।
मगर, उन्होंने बंदरों की गहरी पड़ताल, अपने बच्चों के विकास को देखकर इंसान के विकास के सिद्धांतों को ठोस रूप दिया। उन्होंने साबित किया कि बंदरों और इंसान के बीच गहरा नाता है। दोनों के पुरखे कभी एक ही थे।
डार्विन के ये शुरुआती विचार, आज विज्ञान की नई शाखा के तौर पर पढ़ी-पढ़ाई जा रही है। हमें इसके लिए डार्विन के साथ-साथ उनके बच्चों और उनके परिवार का शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
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