जैसे वर्ष 2020 अंत के करीब आ रहा है , हममें से हर कोई बेसब्री से उम्मीद की किरण तलाश रहा है । इस वर्ष ने हममें से अधिकांश लोगों को शारीरिक , आर्थिक और भावनात्मक रूप से प्रभावित किया ।
जैसे वर्ष 2020 अंत के करीब आ रहा है , हममें से हर कोई बेसब्री से उम्मीद की किरण तलाश रहा है । इस वर्ष ने हममें से अधिकांश लोगों को शारीरिक , आर्थिक और भावनात्मक रूप से प्रभावित किया ।
ऐसे में , आश्वस्त करने वाली किसी भी चीज का स्वागत है । निकट भविष्य में एक प्रभावी वैक्सीन की संभावना और अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में सुधरती स्थिति का संकेत उम्मीद जगाता है । लेकिन उम्मीद की इन झिलमिलाहटों के साथ लंबी परछाइयां भी हैं । नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं , जिन्हें वे अपने साथ घोर अन्याय के रूप में देखते हैं । मांग सुस्त बनी हुई है । लॉकडाउन खत्म हो गया है , लेकिन संकट अब भी जारी है । भूख की महामारी की छाया है । पिछले महीने दिल्ली रोजी - रोटी अभियान ने भूख और कुपोषण पर एक ऑनलाइन सार्वजनिक जन सुनवाई आयोजित की । उस सुनवाई में शहर के सबसे गरीब और बिना राशन कार्ड वाले लोगों तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली तक पहुंच न रखने वालों ने दिल दहला देने वाली कहानियां सुनाईं । यदि भारत की राजधानी दिल्ली में यह स्थिति है , तो देश में कहीं और की स्थिति की कल्पना की जा सकती है । शहरी क्षेत्रों में अधिकांश लोगों को अनाज खरीदना पड़ता है , और इसलिए इसकी कीमत में आने वाले उतार - चढ़ाव के प्रति वे अधिक संवेदनशील होते हैं । उनकी कमाई में अचानक और तेज कटौती उनके आहार पर असर डाल सकती है , खासकर अगर वे गरीब हैं और खाद्य मुद्रास्फीति से जूझ रहे हैं । कई नागरिक समाज संगठनों की साझेदरी में राइट टू फूड कैंपेन द्वारा 11 राज्यों में कराए गए एक त्वरित सर्वेक्षण में हंगर वॉच का यही निष्कर्ष निकलकर सामने आया है । दो दिन पहले जारी इस सर्वे में करीब 4,000 लोग शामिल थे , जिसने पाया कि पूरे देश में भूख की स्थिति बहुत विकट है : इसमें दो तिहाई लोगों ने माना कि पोषण गुणवत्ता खराब हो गई है और लॉकडाउन से पहले की तुलना में सितंबर - अक्तूबर में भोजन की मात्रा भी घट गई है । हंगर वॉच के इस सर्वे में 11 राज्यों ( उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , गुजरात , राजस्थान , महाराष्ट्र , छत्तीसगढ़ , झारखंड , दिल्ली , तेलंगाना , तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ) के 3,994 प्रतिभागियों में से 2,286 ग्रामीण क्षेत्रों से और 1,808 शहरी क्षेत्रों से थे । इनमें से 79 फीसदी प्रतिभागियों की मासिक आय लॉकडाउन से पहले .7,000 रुपये से कम थी , जबकि इनमें से 41 फीसदी लोग लॉकडाउन से पहले प्रतिमाह 3,000 रुपये से कम कमाते थे । इनमें से 59 फीसदी प्रतिभागी दलित / आदिवासी , 23 फीसदी प्रतिभागी अन्य पिछड़ी जातियों ( ओबीसी ) से और करीब चार फीसदी विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों ( पीवीटीजी ) से थे । करीब 64 प्रतिशत ने अपनी पहचान हिंदू बताई , जबकि 20 फीसदी मुस्लिम थे लगभग आधे प्रतिभागी ( 55 फीसदी ) महिलाएं थीं , 48 फीसदी झुग्गी बस्तियों में रहने वाले , 14 फीसदी अकेले घर संभालने वाली महिलाएं थीं और सात फीसदी प्रतिभागी दिव्यांग थे , जो घर संभालते थे । करीब 45 फीसदी दिहाड़ी मजदूर , तो 18 फीसदी किसान थे । भले ही पेश किए गए ये आंकड़े किसी जिले , राज्य या देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते , लेकिन वे भारत के सबसे गरीब परिवारों में अभाव की गंभीरता को स्पष्ट रूप से चित्रित तो करते ही हैं । ये आंकड़े इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं , क्योंकि हमारे पास इस समय देश में भूख और कुपोषण से संबंधित वास्तविक समय का आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है । हंगर वॉच के प्रारंभिक भी भूख की स्थिति गंभीर है । परिणाम बताते हैं कि लॉकडाउन समाप्त होने के पांच महीने बाद भी भूख की स्थिति काफी गंभीर है । बड़ी संख्या में घरों ( 62 फीसदी ) में आय घटी है , अनाज ( 53 फीसदी ) , दालें ( 64 फीसदी ) , सब्जियां ( 73 फीसदी ) और अंडे / मांसाहारी पदार्थों ( 71 फीसदी ) , पोषण गुणवत्ता की मात्रा ( 71 फीसदी ) में कमी आई है , और 45 प्रतिशत घरों में अनाज खरीदने के लिए पैसे उधार लेने की जरूरत बढ़ी है । इस दौरान मुफ्त राशन के रूप में , सूखे राशन तथा / या नकद हस्तांतरण के रूप में तथा स्कूल और आंगनवाड़ी में भोजन के विकल्प के रूप में सरकारी मदद आधे से अधिक लोगों तक पहुंची । बेशक यह सरकारी मदद महत्वपूर्ण रही है , लेकिन हंगर वाँच सर्वेक्षण द्वारा जारी भूख के भयानक आंकड़े हमें बताते हैं कि ये पर्याप्त नहीं हैं तथा अभी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है । मौजूदा संकट के दौरान , जैसा कि हंगर वॉच शो ने दर्शाया , सार्वजनिक वितरण प्रणाली उन कुछ सुरक्षा तंत्रों में से एक रही है , जिन्होंने इसके लिए काम किया है । लेकिन यहां एक परेशानी यह है कि लाखों लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे से बाहर हैं , जिस पर तुरंत ध्यान दिए जाने की जरूरत है । ऐसे देश में , जहां वाल कुपोषण सहित कुपोषण महामारी से पहले भी आम बात थी , यह मामला गंभीर है और स्वास्थ्य और जीवन की संभावनाओं को प्रभावित कर सकता है । भोजन का अधिकार कार्यकर्ताओं ने कई मांगें की हैं । उनमें एक सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मांग है , जिनमें हर व्यक्ति को कम से कम अगले छह महीने ( जून 2021 तक ) के लिए 10 किलो अनाज , 1.5 किलो दाल और 800 ग्राम खाना पकाने के तेल के साथ स्वच्छता से संबंधित सभी सुरक्षा उपायों के अनुपालन के साथ आंगनवाड़ी केंद्र और स्कूल के मध्याह्न भोजन के माध्यम से , अंडे सहित पौष्टिक , गर्म , पकाए भोजन के वितरण की मांग भी शामिल है । ये कार्यकर्ता समेकित बाल विकास कार्यक्रम ( आईसीडीएस ) की सभी सेवाओं के पुनरोद्धार की मांग कर रहे हैं , जिनमें बच्चों की शारीरिक वृद्धि की निगरानी और अति कुपोषित बच्चों के लिए अतिरिक्त पूरक पोषक आहार व पोषण परामर्श सेवाएं शामिल हैं । क्या इसके लिए सरकार के पास धन है ? निश्चित रूप से है । यदि एक नए संसद भवन के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और संसाधन हैं , तो तीव्र भूख की महामारी की परछाईं से निपटने के लिए भी इनका इस्तेमाल किया जा सकता है ।
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