को विड -19 महामारी ने दरअसल एक आईने का काम किया ,
को विड -19 महामारी ने दरअसल एक आईने का काम किया ,
जिस पर सबकी नजर पड़ी । यह एक सामान्य सत्य है कि वायरस से पैदा संक्रामक महामारी से लड़ने में प्रतिरक्षा व्यवस्था ( इम्युन सिस्टम ) ही कारगर है । पर इम्युनिटी रातोंरात हासिल नहीं की जा सकती , क्योंकि यह वर्षों तक पोषक तत्वों वाले भोजन के सेवन से आती है । इसी कारण मैं कहता हूं कि इस तथ्य की गंभीरता पर विचार करें कि कुपोषित माताओं से कुपोषित बच्चे ही पैदा होते हैं । जब सभी माताएं और बच्चों की देखभाल करने वाली अल्पपोषित होंगी , तो भारत आत्मनिर्भर कैसे बन सकता है ? मैं पिछले करीब दो दशकों से पोषण की इस जटिल समस्या का अध्ययन कर रहा हूं । मुझे डर है कि हम भारत के स्वास्थ्य और उसकी उत्पादकता के समक्ष खड़ी सबसे महत्वपूर्ण समस्या को भूल रहे हैं । कोविड काल के बाद यह स्पष्ट होना चाहिए कि हमारी समस्या खाद्य सुरक्षा और भूख नहीं , बल्कि पोषण सुरक्षा है सबके लिए पोषण सुरक्षित करना हमारी कृषि नीति का लक्ष्य होना चाहिए । हम किसानों से कौन - सी फसल उगाने की अपेक्षा रखते हैं ? सिर्फ गेहूं और धान ? एक ही फसल आहार हमें संकट की ओर ही ले जाएगा । चाहे खेत हो , प्लेट हो या पेट - विविधता में ही भविष्य है । इसके लिए किसानों को विविधतापूर्ण खेती करनी होगी , जो लाभप्रद भी है और जिससे हर किसी को पोषक तत्वों से भरपूर भोजन मिलेगा । अपने शोध के आधार पर आंध्र प्रदेश के अराकू ( जहां विश्व स्तरीय अराकू कॉफी का सह - उत्पादन किया गया ) , वर्धा और दिल्ली में छोटी जोत वाले हजारों किसानों के साथ हमने दिखाया कि हमारे पास खाद्यान्न की ऐसी दृष्टि है , जो पर्यावरण , किसान और उपभोक्ताओं- सबके लिए लाभकारी साबित हो सकती है । अपने इस ढांचे ( प्रेमवर्क ) को हम अराकुनोमिक्स कहते हैं और जिसे रॉकफेलर फाउंडेशन ने थीं फूड सिस्टम विजन पुरस्कार के योग्य माना है । इसमें सुझाए गए विचार और एक
भारत के लिए व्यापक बदलाव वाले हैं , बशर्ते हम सुनिश्चित करें कि पोषक तत्वों से भरपूर विविध खाद्य पदार्थ हमारी माताओं और बहनों का मुख्य भोजन बनें । वर्ष 2018 में टीन एज गर्ल्स ( टीएजी ) सर्वे के जरिये एक अग्रणी संगठन नान्दो फाउंडेशन द्वारा देश में पहली बार देश की बारह करोड़ लड़कियों की आवाज सुनने का प्रयास किया गया । तब देश के सभी राज्यों के 600 से ज्यादा जिलों में 1,000 प्रशिक्षित सर्वेक्षण कर्ताओं ( सभी महिलाएं ) ने 74,000 किशोर उम्र की लड़कियों के प्रतिनिधित्व सैंपल इकट्ठा किए । डिजिटल टैबलेट के सहारे सर्वेक्षण करने वालियों ने लड़कियों के इंटरव्यू लिए , उनका कद , वजन और हीमोग्लोबिन स्तर मापा तथा तमाम उपलब्ध आंकड़े दर्ज किए । यह भूख एवं कुपोषण सर्वे ( हंगामा सर्वे ) का फॉलोअप था , जिसमें एक लाख नौ हजार के स्तर को मापा गया था और 71,000 माताओं से बात की गई थी । ऐसे ही सर्वाधिक जनसंख्या वाले दस शहरों में जहां शहरी हंगामा सर्वे किया गया , वहीं देश भर के 900 आदिवासी गांवों के 15,000 बच्चों पर चार साल तक शोध किया गया इन सभी अनुभवों से हमने निष्कर्ष निकाला कि बाल कुपोषण के खिलाफ लड़ाई में एक कड़ी गायब थी । किशोरियां ही यह महत्वपूर्ण गायब कड़ी थीं । हमें एहसास हुआ कि देश में किशोरियां का बड़े पैमाने पर कोई डाटावेस नहीं है और वे माताओं व शिशुओं के बीच गायब हैं । यही खोज केवल हजारों हेक्टेयर में व्यापक पैमाने और बड़ी परियोजना पर काम कर रहे हैं , बल्कि धान व गेहूं पैदा करने की परंपरा तोड़कर पोषक टीएजी सर्वेक्षण करने का आधार बनी , जिससे पता चला कि माताओं एवं बहनों पर निवेश करने की तत्काल जरूरत है । हालांकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ( एनएफएचएस ) के विभिन्न चरणों के दौरान कुपोषण की प्रवृत्ति में गिरावट देखी गई , फिर भी यह धीमी गति से घट रही है । 2019-20 के नवीनतम सर्वे के शुरुआती परिणाम दिखा रहे हैं कि इस लड़ाई में जीत अभी दूर है । हालांकि हमारी उम्मीद है कि छह महीने से ज्यादा की महामारी और लॉकडाउन की स्थिति में अपूरणीय क्षति नहीं हुई होगी । सरकारी और गैर सरकारी कार्यक्रमों का सारा ध्यान और निवेश गर्भवती महिलाओं व शिशुओं पर किया गया है । लेकिन उनके बारे में क्या योजना है , जो कल मां बनेंगी ? किशोरियों के बारे में हमारे क्या विचार हैं ? वे गर्भवती महिलाओं की तरह पोषण विमर्श के केंद्र में नहीं हैं । जबकि इसके पर्याप्त सबूत हैं कि नवजात बच्चों की सेहत महिला की सेहत पर निर्भर है । मातृत्व स्वास्थ्य को वैश्विक स्तर पर गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति के रूप में परिभाषित किया जाता है । पर क्या केवल नौ महीने में गंभीर रूप से खराब स्वास्थ्य स्थिति बदली जा सकती है ? जन्म के समय कम वजन एक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है , जो मानव पूंजी को अल्पकाल या दीर्घकाल , दोनों में प्रभावित करती है । कम वजन वाले नवजातों में रुग्णता , बाल बौनापन और हृदय रोग के साथ - साथ शारीरिक बीमारियों का खतरा ज्यादा रहता है । यूनिसेफ की चेतावनी है कि जन्म के समय 2,500 ग्राम से कम वजन वाले शिशुओं की मृत्यु की आशंका वजनी शिशुओं की तुलना में करीब 20 गुना अधिक होती है । टीएजी सर्वे बताता है कि देश की आधी किशोरियां एनीमिया से पीड़ित हैं और हर दूसरी किशोरी कम वजन की हैं । देश की किशोरियों की समस्या सामने लाने में नान्दी फाउंडेशन ने वक्त बर्बाद नहीं किया । उनके लिए स्कूली शिक्षा कार्यक्रम को व्यापक रूप देने के अलावा हमने उन्हें स्नातक बनाने के लिए काम शुरू किया । पर हमें एहसास हुआ कि किसानों के साथ काम करना और सबके लिए पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराना ज्यादा महत्वपूर्ण है । हम न खाद्यान्न का उत्पादन भी कर रहे हैं । समय आ गया है कि यह देश माताओं एवं बहनों के पोषक भोजन को महत्व दे ।
-लेखक नान्दी फाउंडेशन के सीईओ
एवं अराकू कॉफी के सह - संस्थापक हैं ।
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