Joe Biden की कि चुनौती है चीन
नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो वाइडन ने शपथ ले ली है , पर वैश्विक मोर्चे पर उनके लिए अपने पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप की छाया से बाहर निकलना कठिन होगा । खासकर चीन पर उन्हें सतर्क नजर रखनी होगी । बराक ओबामा के समय उप - राष्ट्रपति रहते हुए उन्होंने चीन का जैसा मूल्यांकन किया था , बदले हुए समय और बदली भूमिका में चीन के प्रति उन्हें वह आकलन भी बदलना होगा । तव से अव तक दुनिया बहुत बदल गई है , तो सिर्फ इसलिए नहीं कि कोविड -19 ने भारी तबाही मचाई है , बल्कि इसलिए भी कि अमेरिका और चीन संभवतः लंबे समय के लिए प्रतिद्वंद्वी की भूमिका में हैं । ऐसे में , चीन को रोकना वाइडन की बड़ी चुनौती होगा , जो बहुत आसान नहीं है । जाते - जाते ट्रंप के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रॉबर्ट ओ ब्रायन ने ' भारत - प्रशांत के लिए अमेरिका का रणनीतिक ढांचा ' नाम से ट्रंप प्रशासन की एशिया नीति सार्वजनिक कर दी है । वर्ष 2018 से यह नीति अमेरिका के लिए रणनीतिक दिशा- निर्देश का काम करती आ रही थी । जाहिर है , इस दस्तावेज को सार्वजनिक करने का उद्देश्य बाइडन प्रशासन को परेशानी में डालना है , क्योंकि अमेरिका की सत्ता पर कोई भी बैठे , चीन की चुनौतियों और इसके विपरीत भारत में मिलने वाले अवसरों के बारे में सभी एकमत हैं । यह दस्तावेज इसी से संबंधित है । हालांकि इसमें इसका उल्लेख कम ही है कि क्षेत्रीय स्तर पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए चीन क्या रणनीति अपनाएगा , लेकिन इसमें बीजिंग की डिजिटल नजरदारी , सूचनाओं पर नियंत्रण तथा अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए ऐसे कदम उठाने का स्पष्ट उल्लेख है , जो न केवल अमेरिकी मूल्यों के खिलाफ है , बल्कि जिससे भारत - प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के हित भी बुरी तरह प्रभावित होंगे । इस वर्ष सौ साल की हो जाने वाली सत्तारूढ़ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अपना ' मिशन 2050 ' पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जाएगी , और अमेरिका को इसके लिए तैयार रहना होगा ।
पूर्ववर्ती ट्रंप प्रशासन के इस रणनीतिक दस्तावेज में कहा गया है कि ' अमेरिका को चीन की औद्योगिक नीतियों और व्यापार करने के अनैतिक तौर - तरीकों पर अंकुश लगाने के लिए बीजिंग के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सहमति बनाने पर काम करना होगा । लेकिन यह काम मुश्किल लगता है , क्योंकि बाइडन के शपथ लेने से पहले ही अमेरिका के पश्चिमी सहयोगियों तथा यूरोपीय संघ ने चीन के साथ व्यापार समझौते पर दस्तखत किए हैं । ऐसे में , अमेरिका के सामने दो ही विकल्प हैं । या तो वह अकेले ही चीन का मुकाबला करे या क्वाड में अपने सहयोगियों , ऑस्ट्रेलिया , जापान और भारत के साथ मिलकर इस दिशा में आगे बढ़े । क्वाड को मजबूत करना अमेरिका के लिए बेहतर होगा , क्योंकि इससे भारत - प्रशांत की उसकी नीति में दूसरे देशों का साथ मिलेगा । यह इसलिए भी सही है , क्योंकि ऑस्ट्रेलिया का चीन के साथ अब छत्तीस का आंकड़ा है , जापान की चीन के साथ पुरानी प्रतिद्वंद्विता है , तो भारत अपनी सरहद पर चीनी आक्रामकता का सामना कर रहा है । यह दस्तावेज कहता है कि क्वाड के मोर्चे से चीन के खिलाफ अभियान में भारत की केंद्रीय भूमिका होगी । जाहिर है कि अमेरिका भारत की सैन्य , कूटनीतिक तथा खुफिया मदद में वृद्धि करना चाहता है , क्योंकि वाशिंगटन क्षेत्रीय स्तर पर भारत को चीन के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता है । यह इसलिए भी सही है , क्योंकि चीन का रणनीतिक उद्देश्य ही सरहदी क्षेत्रों पर साझा जलस्रोतों पर कब्जा जमाना है । दिलचस्प बात यह है कि यह दस्तावेज लद्दाख क्षेत्र में चीनी आक्रामकता से करीब दो साल पहले 2017-18 में तैयार किया
है । लेकिन वह चाहता गया था । यह अलग बात है कि भारतीय नीति - नियंता चीन की मंशा को समझ पाने में विफल रहे । हम यही सुनते आ रहे थे कि ' वुहान की भावना ' तथा ' चेन्नई में दोनों शीर्ष नेताओं की बैठक ' भारत - चीन के बीच तमाम विवादों का हल निकालने में सफल होगी । लेकिन चीनी आक्रामकता की सच्चाई सामने आने के बाद हमारा नेतृत्व ठीक वैसे ही अचंभित रह गया , जैसे कारगिल हमले के समय हुआ था । हालांकि अमेरिका के पास इस संकट का हल है कि भारत उसके साथ आए । जैसा कि भारत से जल्दी ही विदा होने वाले अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने कहा , ' नई दिल्ली अपने विकल्प खोले रखना चाहती है , लेकिन अंततः उसे चुनाव करना ही होगा । ' जाहिर है , अमेरिकी राजदूत भारत और रूस के बीच की पुरानी दोस्ती तथा रूसी हथियारों पर भारतीय निर्भरता की ओर इशारा कर रहे थे । इससे अमेरिका भले ही चिढ़ता हो , लेकिन रूस - चीन के दोस्ताना रिश्ते को देखते हुए रूस को अपने पाले में रखना भारत की मजबूरी है । हालांकि रूस - चीन के कारोबारी रिश्ते रूस - भारत के कारोबारी रिश्ते से व्यापक हैं , लेकिन रक्षा क्षेत्र में अमेरिकी चेतावनी के बावजूद भारत का रूस से 5.4 अरब डॉलर का एस -400 एयर डिफेंस सिस्टम तथा लद्दाख में चीनी आक्रामकता के बीच रूस से सुखोई तथा मिग युद्धक विमानों की खरीदारी का महत्व है । भारत हालांकि रक्षा खरीदारी के मामले में अमेरिका को भी खुश करता रहा है । भारत द्वारा राफेल की खरीदारी से अमेरिकी हथियार उत्पादकों की नाराजगी के बावजूद तथ्य यह है कि पिछले एक दशक में अमेरिका ही भारत के सबसे बड़े हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरा है । यह सर्वज्ञात है कि सैन्य तकनीकों की बिक्री से पहले अमेरिकी सरकार की मंजूरी जरूरी है । लेकिन अमेरिका के लिए जरूरी यह है कि अब वह रक्षा तकनीकों के आदान - प्रदान में सरकारी मंजूरी की शर्त हटाए , जैसा कि रूस ने दशकों पहले किया । तभी भारत रक्षा निर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर वन पाएगा । चूंकि सार्वजनिक किए गए दस्तावेज में कहा गया है कि सुरक्षा के मुद्दे पर अमेरिका को भारत का साझीदार बनना चाहिए , तभी दोनों सामुद्रिक क्षेत्रों की सुरक्षा के साथ दक्षिण व दक्षिण पूर्वी एशिया में बेहतर सहयोग कर पाएंगे , ऐसे में सवाल यह है कि हिमालयी क्षेत्र में चीनी आक्रामकता के खिलाफ अकेले लड़ते हुए क्या भारत सामुद्रिक इलाकों में चीन के खिलाफ अमेरिका की मदद करेगा । बाइडन को चाहिए कि वे बिना देरी किए इस मुद्दे पर विचार करें , अन्यथा भारत अपनी मदद कहीं और तलाशेगा तथा क्षेत्रीय स्तर पर चीन के खिलाफ भारत को खड़े करने की अमेरिकी योजना धरी रह जाएगी ।
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